कविताएँ

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आज जाने की ज़िद न करो

  आज जाने की ज़िद न करो यूँ ही पहलू में बैठे रहो हाय मर जायेंगे हम तो लुट जायेंगे ऐसी बातें किया न करो तुम्ही सोचो ज़रा, क्यूँ न रोकें तुम्हें जान जाती है जब, उठ के जाते हो तुम तुमको अपनी क़सम जान-ए-जाँ बात इतनी मेरी मान लो आज जाने की... वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर चंद घड़ियाँ यही है जो आज़ाद हैं इनको खोकर मेरी जान-ए-जाँ उम्र भर ना तरसते रहो आज जाने की... कितना मासूम रंगीन है ये समां हुस्न और इश्क़ की आज मेराज है कल...

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प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!

प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!   श्वासों में सपने कर गुम्फित, बन्दनवार वेदना- चर्चित, भर दुख से जीवन का घट नित, मूक क्षणों में मधुर भरुंगी भारती!   दृग मेरे यह दीपक झिलमिल, भर आँसू का स्नेह रहा ढुल, सुधि तेरी अविराम रही जल, पद-ध्वनि पर आलोक रहूँगी वारती!   यह लो प्रिय ! निधियोंमय जीवन, जग की अक्षय स्मृतियों का धन, सुख-सोना करुणा-हीरक-कण, तुमसे जीता, आज तुम्हीं को हारती!

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टकरा ही गई मेरी नज़र उनकी नज़र से

टकरा ही गई मेरी नज़र उनकी नज़र से धोना ही पङा हाथ मुझे, कल्ब-ओ-जिगर[1] से इज़हार-ए-मोहब्बत न किया बस इसी डर से ऐसा न हो गिर जाऊँ कहीं उनकी नज़र से ऐ ज़ौक़-ए-तलब[2], जोश-ए-जुनूँ ये तो बता दे जाना है कहाँ और हम आए हैं किधर से ऐ अहल-ए-चमन[3], सहन-ए-चमन[4] से कफ़स[5] अच्छा महफूज़ तो हो जाएँगे हम बर्क-ए-शरर[6] से 'फ़य्याज़' अब आया है जुनूँ जोश पे अपना हँसता है ज़माना, मैं गुज़रता हूँ जिधर से शब्दार्थ: 1. कल्ब-ओ-जिगर = दिल और कलेजा ...

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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

  अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें   ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन[1] है ख़राबों[2] में मिलें   तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों[3] में मिलें   ग़म-ए-दुनिया[4] भी ग़म-ए-यार[5] में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें   आज हम दार[6] पे खेंचे गये जिन बातों पर क्या...

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ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते

  ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा[1] क्यूँ नहीं देते  बिस्मिल[2] हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते    वहशत[3] का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ[4] तो नहीं है  मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम[5] को बुझा क्यूँ नहीं देते    इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ[6] है  ऐ चारागरो![7] दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते    मुंसिफ़[8] हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे  मुजरिम[9] हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते    रहज़न[10] हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ[11]...

Subhadra kumari chauhan 275x153.jpg

वीरों का कैसा हो वसंत

आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त वीरों का हो कैसा वसन्त   फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग अंग; है वीर देश में किन्तु कंत वीरों का हो कैसा वसन्त   भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत वीरों का हो कैसा वसन्त   गलबाहें हों या कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण...

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

घर मेरा है?

क्या कहा कि यह घर मेरा है? जिसके रवि उगें जेलों में, संध्या होवे वीरानों मे, उसके कानों में क्यों कहने आते हो? यह घर मेरा है?   है नील चंदोवा तना कि झूमर झालर उसमें चमक रहे, क्यों घर की याद दिलाते हो, तब सारा रैन-बसेरा है? जब चाँद मुझे नहलाता है, सूरज रोशनी पिन्हाता है, क्यों दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा है, यह मेरा है?   ये आए बादल घूम उठे, ये हवा के झोंके झूम उठे, बिजली...

Dharmavir bharti 275x153.jpg

थके हुए कलाकार से

सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,   अभी तो पलक में नहीं खिल सकी  नवल कल्पना की मधुर चाँदनी  अभी अधखिली ज्योत्सना की कली  नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी    अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अधूरी धरा पर नहीं है कहीं    अभी स्वर्ग की नींव का भी पता! सृजन की थकन भूल जा देवता! रुका तू गया रुक जगत का सृजन  तिमिरमय नयन में डगर भूल कर    कहीं खो गई रोशनी की किरन  घने बादलों में कहीं सो गया  ...

Subhadra kumari chauhan 275x153.jpg

साध

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।  भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।    वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।  बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।    कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।  पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।    सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।  तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।    सरिता के नीरव प्रवाह-सा...

Ramanath awasthi 275x153.jpg

वे दिन

याद आते हैं फिर बहुत वे दिन               जो बड़ी मुश्किलों से बीते थे !   शाम अक्सर ही ठहर जाती थी देर तक साथ गुनगुनाती थी ! हम बहुत ख़ुश थे, ख़ुशी के बिन भी चाँदनी रात भर जगाती थी !               हमको मालूम है कि हम कैसे               आग को ओस जैसे पीते थे ! घर के होते हुए भी बेघर थे रात हो, दिन हो, बस, हमीं भर थे ! डूब जाते थे मेघ भी जिसमें हम उसी प्यास के समन्दर थे !               उन दिनों मरने की न थी फ़ुरसत,...

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कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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