कविताएँ

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साँझ के बादल

ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।   नीलम पर किरनों  की साँझी  एक न डोरी  एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती  सेंदुर और प्रवाल!   कुछ समीप की  कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की  कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम  कुछ में केवल जाल।   ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।

Dushyant kumar 275x153.jpg

एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा

एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा   बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया   चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा   सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया   धीरे— धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में इनको क्या मालूम कि...

Subhadra kumari chauhan 275x153.jpg

यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।  मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।    ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।  किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।    तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।  उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।    वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।  अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।    बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।  माँ, तब...

Ramanath awasthi 275x153.jpg

सो न सका

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात   मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात   गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात और...

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

ये प्रकाश ने फैलाये हैं

ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में अन्धकार का अमित कोष भर आया फैली व्याली में   ख़ाली में उनका निवास है, हँसते हैं, मुसकाता हूँ मैं ख़ाली में कितने खुलते हो, आँखें भर-भर लाता हूँ मैं इतने निकट दीख पड़ते हो वन्दन के, बह जाता हूँ मैं संध्या को समझाता हूँ मैं, ऊषा में अकुलाता हूँ मैं चमकीले अंगूर भर दिये दूर गगन की थाली में ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में।।   पत्र-पत्र पर, पुष्प-पुष्प पर कैसे राज...

Dharmavir bharti 275x153.jpg

फागुन की शाम

घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली-सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!   मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,  ये फागुन की शाम है!   घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी   आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी! अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!   इस...

Dushyant kumar 275x153.jpg

आग जलती रहे

एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ, आता हुआ दिन छुआ हाथों से गुजरता कल छुआ हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा, फूल-पत्ती, फल छुआ जो मुझे छूने चली हर उस हवा का आँचल छुआ ... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता आग के संपर्क से दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में मैं उबलता रहा पानी-सा परे हर तर्क से एक चौथाई उमर यों खौलते बीती बिना अवकाश सुख कहाँ यों भाप बन-बन कर चुका, रीता, भटकता छानता आकाश आह! कैसा कठिन ......

Subhadra kumari chauhan 275x153.jpg

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।  गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥    चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।  कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?    ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?  बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥    किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।  किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥    रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।  बड़े-बड़े...

Dharmavir bharti 275x153.jpg

आँगन

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में  जाकर चुपचाप खड़े होना  रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना  मन का कोना-कोना    कोने से- फिर उन्हीं सिसकियों का उठना  फिर आकर बाँहों में खो जाना  अकस्मात् मण्डप के गीतों की लहरी  फिर गहरा सन्नाटा हो जाना  दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,  कँपना, बेबस हो गिर जाना    रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना  मन को कोना-कोना  बरसों के बाद उसी सूने-से आँगन में  जाकर चुपचाप खड़े होना !...

Ramanath awasthi 275x153.jpg

सौ बातों की एक बात है

सौ बातों की एक बात है ।   रोज़ सवेरे रवि आता है दुनिया को दिन दे जाता है लेकिन जब तम इसे निगलता होती जग में किसे विकलता सुख के साथी तो अनगिन हैं लेकिन दुःख के बहुत कठिन हैं   सौ बातो की एक बात है |   अनगिन फूल नित्य खिलते हैं हम इनसे हँस-हँस मिलते हैं लेकिन जब ये मुरझाते हैं तब हम इन तक कब जाते हैं जब तक हममे साँस रहेगी तब तक दुनिया पास रहेगी   सौ बातों की एक बात है |   सुन्दरता पर सब मरते...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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