कविताएँ

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तुम्हारा चित्र

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर  हरे-हरे घन श्यामल वन पर द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर  चुम्बन आज पवित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। तुम आए, बोले, तुम खेले दिवस-रात्रि बांहों पर झेले साँसों में तूफान सकेले जो ऊगा वह मित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। ये टिमटिम-पंथी ये तारे पहरन मोती जड़े तुम्हारे विस्तृत! तुम जीते हम हारे! चाँद साथ सौमित्र बन गया। मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

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वह क्या लक्ष्य

वह क्या लक्ष्य  जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष बताने की, क्या पाया?   वह कैसा पथ-दर्शक जो सारा पथ देख स्वयं फिर आया और साथ में--आत्म-तोष से भरा-- मान-चित्र लाया?   और वह कैसा राही कहे कि हाँ, ठहरो, चलता हूँ इस दोपहरी में भी, पर इतना बतला दो, कितना पैंडा मार मिलेगी पहली छाया?

Aarsi prasad singh 275x153.jpg

चाँद को देखो

चाँद को देखो चकोरी के नयन से माप चाहे जो धरा की हो गगन से।   मेघ के हर ताल पर   नव नृत्य करता   राग जो मल्हार   अम्बर में उमड़ता आ रहा इंगित मयूरी के चरण से चाँद को देखो चकोरी के नयन से।   दाह कितनी   दीप के वरदान में है   आह कितनी   प्रेम के अभिमान में है पूछ लो सुकुमार शलभों की जलन से चाँद को देखो चकोरी के नयन से।   लाभ अपना   वासना पहचानती है   किन्तु मिटना   प्रीति केवल जानती है माँग ला रे अमृत जीवन का मरण से चाँद...

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

बसन्त मनमाना

चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ। धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें, दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर- बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे। पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल। छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल किसको...

Dr ashwaghosh 275x153.jpg

समय नहीं है

नानी-नानी! कहो कहानी, समय नहीं है, बोली नानी। फिर मैंने पापा को परखा, बोले-समय नहीं है बरखा। भैया पर भी समय नहीं था, उसका मन भी और कहीं था। मम्मी जी भी लेटी-लेटी, बोलीं-समय नहीं है बेटी। मम्मी, पापा, नानी, भैया, दिन भर करते ता-ता-थैया। मेरी समझ नहीं आता है, इनका समय कहाँ जाता है!

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हिमाद्रि तुंग शृंग से

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती  स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती  'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,  प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'    असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी  सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!  अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,  प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

करुणा की छाया न करो

जलने दो जीवन को इस पर करुणा की छाया न करो! इन असंख्य-घावों पर नाहक अमृत बरसाया न करो! फिर-फिर उस स्वप्निल-अतीत की गाथाएं गाया न करो! बार-बार वेदना-भरी स्मृतियों को उकसाया न करो! जीवन के चिर-अंधकार में दीपक तुम न जलाओ! मेरे उर के घोर प्रलय को सोने दो, न जगाओ! इच्छाओं की दग्ध-चिता पर क्यों हो जल बरसाते? सोई हुई व्यथा को छूकर क्यों हो व्यर्थ जगाते? संवेदना प्रकट करते हो चाह नहीं, रहने दो! ठुकराए को हाथ बढ़ाकर क्यों हो अब अपनाते?...

Suryakant tripathi nirala 275x153.jpg

नारायण मिलें हँस अन्त में

याद है वह हरित दिन बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं देखता दूर-विस्तृत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल आलोचनाओं से जटिल तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा, गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा। थक गई थी कल्पना जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी खोजती तट-भूमि सागर-गर्भ में, फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर। पवन-पीड़ित पत्र-सा कम्पन प्रथम वह अब न था। शान्ति थी, सब हट गये बादल विकल वे व्योम के। उस प्रणय के प्रात के है आज तक याद मुझको जो किरण ...

Aarsi prasad singh 275x153.jpg

जीवन का झरना

यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है। सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।    कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे?  किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे?    निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है!  धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।    बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,  बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।    लहरें उठती हैं,...

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

हिमालय

अरे हिमालय! आज गरज तू बनकर विद्रोही विकराल! लाल लहू के ललित तिलक से शोभित करके अपना भाल। विश्व-विशाल-वीर दिग्विजयी! अभिमानी अखंड गिरिराज! साज, साज हां आज गरजकर क्रांति-महोत्सव के शुभ-साज शंखनाद कर, सिंह-नाद कर कर हुंकार-नाद भयमान! पड़े कब्र के भीतर मुर्दे दौड़ पड़ें सुनकर आह्वान।

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