कविताएँ

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वसन्त की परी के प्रति

आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी-- छवि-विभावरी; सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी- छबि-विभावरी; बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग, तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग, पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग, शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी-- छबि-विभावरी; निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन, सहज समीरण, कली निरावरण आलिंगन दे उभार दे मन, तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी-- छबि-विभावरी; आई है फिर मेरी 'बेला' की वह बेला 'जुही की कली' की प्रियतम से परिणय-हेला,...

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

राह में क्षण सृजन का कहीं है पड़ा

रात के खेत का स्वर सितारों-जड़ा बीचियों में छलकती हुई झीलके दीप सौ-सौ लिए चल रही है हवा बांध ऊंचाइयां पंख में राजसी स्वप्न में भी समुद्यत सजग है लवा राह में क्षण सृजन का कहीं है पड़ा व्योम लगता कि लिपिबद्ध तृणभूमि है चांदनी से भरी दूब बजती जहां व्योम लगता कि हस्ताक्षरित पल्लवी पंखवाली परी ओस सजती जहां ओढ़ हलका तिमिर शैली प्रहरी खड़ा

Aarsi prasad singh 275x153.jpg

नए जीवन का गीत

मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया। चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया। मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला? मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला? हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया। मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया। अपने मन के दर्पण में मैं किस सुन्दर का रूप निहारूँ? नव-नव गीतों की यह रचना किसके इंगित पर बलिहारूँ? मानस का मोती लेगी वह कौन अगोचर राजमराली? किस वनमाली के...

Gopalsinghnepali 275x153.jpg

इस रिमझिम में चाँद हँसा है

1. खिड़की खोल जगत को देखो,  बाहर भीतर घनावरण है शीतल है वाताश, द्रवित है दिशा, छटा यह निरावरण है मेघ यान चल रहे झूमकर शैल-शिखर पर प्रथम चरण है! बूँद-बूँद बन छहर रहा यह जीवन का जो जन्म-मरण है! जो सागर के अतल-वितल में  गर्जन-तर्जन है, हलचल है; वही ज्वार है उठा यहाँ पर शिखर-शिखर में चहल-पहल है! 2. फुहियों में पत्तियाँ नहाई आज पाँव तक भीगे तरुवर, उछल शिखर से शिखर पवन भी  झूल रहा तरु की बाँहों पर; निद्रा भंग, दामिनी चौंकी, झलक...

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

कैदी और कोकिला

क्या गाती हो? क्यों रह-रह जाती हो? कोकिल बोलो तो! क्या लाती हो? सन्देशा किसका है? कोकिल बोलो तो! ऊँची काली दीवारों के घेरे में, डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में, जीने को देते नहीं पेट भर खाना, मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना! जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है, शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है? हिमकर निराश कर चला रात भी काली, इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ? क्यों हूक पड़ी? वेदना-बोझ वाली-सी; कोकिल बोलो तो! "क्या लुटा? मृदुल वैभव...

Suryakant tripathi nirala 275x153.jpg

अभी न होगा मेरा अन्त

अभी न होगा मेरा अन्त अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसन्त- अभी न होगा मेरा अन्त हरे-हरे ये पात, डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर फेरूँगा निद्रित कलियों पर जगा एक प्रत्यूष मनोहर पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं, अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं, द्वार दिखा दूँगा फिर उनको है मेरे वे जहाँ अनन्त- अभी न होगा मेरा अन्त। मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण, इसमें कहाँ मृत्यु? है जीवन...

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आज प्रथम गाई पिक

आज प्रथम गाई पिक पञ्चम। गूंजा है मरु विपिन मनोरम।  मरुत-प्रवाह, कुसुम-तरु फूले, बौर-बौर पर भौरे झूले, पात-पात के प्रमुदित झूले, छाय सुरभि चतुर्दिक उत्तम। आंखों से बरसे ज्योति-कण, परसे उन्मन - उन्मन उपवन, खुला धरा का पराकृष्ट तन फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम। प्रथम वर्ष की पांख खुली है, शाख-शाख किसलयों तुली है, एक और माधुरी चुली है, गीतम-गन्ध-रस-वर्णों अनुपम।

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

तुम्हारी हंसी से धुली घाटियों में

तुम्हारी हंसी से धुली घाटियों में तिमिर के प्रलय का नया अर्थ होगा अनल-सा लहकते हुए तरु-शिखा पर किरण चल रही या चरण हैं तुम्हारे सुना है, बहुत बार अनुभव किया है सुरों में तुम्हें रात भू पर उतारे तुम्हारी हंसी से धुले हुए पर्वतों के धड़कते हृदय का नया अर्थ होगा तुम्हारा कहीं एक कण देख पाया तभी से निरंतर पयोनिधि सुलगता कहीं एक क्षण पा गया है तुम्हारा तभी से प्रभंजन अनिर्बन्ध लगता तुम्हारी हंसी से धुली क्यारियों में छलकते प्रणय का...

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

एक क्षण तुम रुको

जिंदगी को लिए मैं खड़ा ओस में एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां तुम समय हो, सदा भागते ही रहे आज तक रूप देखा तुम्हारा नहीं टाप पड़ती सुनाई सभी चौंकते किंतु तुमने किसी को पुकारा नहीं चाहता आज पाहुन बना दूं तुम्हें कौन जाने कि कल फिर मिलोगे कहां जिंदगी को लिए मैं जड़ा ओस में एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां हो लुटेरे बड़े, स्नेह लूटा किए स्नेह में स्नेह कण-भर मिलाया नहीं आग जलती रही तुम रहे झूमते दर्द का एक आंसू बहाया नहीं आज तक जो...

Amir khusro 275x153.jpg

ऐ री सखी मोरे पिया घर आए

  ऐ री सखी मोरे पिया घर आए भाग लगे इस आँगन को बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को। मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए। देख सूरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को। जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन। जिस सावन में पिया घर नाहि, आग लगे उस सावन को। अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मै मन भाऊँ साजन को।

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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