नदी को रास्ता किसने दिखाया? सिखाया था उसे किसने कि अपनी भावना के वेग को उन्मुक्त बहने दे? कि वह अपने लिए खुद खोज लेगी सिन्धु की गम्भीरता स्वच्छन्द बहकर? इसे हम पूछते आए युगों से, और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का। मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने, बनाया मार्ग मैने आप ही अपना। ढकेला था शिलाओं को, गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से, वनों में, कंदराओं में, भटकती, भूलती मैं फूलती उत्साह...
सावधान, जन-नायक सावधान। यह स्तुति का साँप तुम्हे डस न ले। बचो इन बढ़ी हुई बांहों से धृतराष्ट्र - मोहपाश कहीं तुम्हे कस न ले। सुनते हैं कभी, किसी युग में पाते ही राम का चरण-स्पर्श शिला प्राणवती हुई, देखते हो किन्तु आज अपने उपास्य के चरणों को छू-छूकर भक्त उन्हें पत्थर की मूर्ति बना देते हैं। सावधान, भक्तों की टोली आ रही है पूजा-द्रव्य लिए! बचो अर्चना से, फूलमाला से, अंधी अनुशंसा की हाला...
मनाना चाहता है आज ही? -तो मान ले त्यौहार का दिन आज ही होगा! उमंगें यूँ अकारण ही नहीं उठतीं, न अनदेखे इशारे पर कभी यूँ नाचता मन; खुले से लग रहे हैं द्वार मंदिर के बढ़ा पग- मूर्ति के शृंगार का दिन आज ही होगा! न जाने आज क्यों दिल चाहता है- स्वर मिला कर अनसुने स्वर में किसी की कर उठे जयकार! न जाने क्यूँ बिना पाए हुए भी दान याचक मन, विकल है व्यक्त करने के लिए आभार! कोई तो, कहीं तो प्रेरणा...
झुक रही है भूमि बाईं ओर, फ़िर भी कौन जाने? नियति की आँखें बचाकर, आज धारा दाहिने बह जाए। जाने किस किरण-शर के वरद आघात से निर्वर्ण रेखा-चित्र, बीती रात का, कब रँग उठे। सहसा मुखर हो मूक क्या कह जाए? 'सम्भव क्या नहीं है आज- लोहित लेखनी प्राची क्षितिज की, कर रही है प्रेरणा, यह प्रश्न अंकित? कौन जाने आज ही नि:शेष हों सारे सँजोये स्वप्न, दिन की सिध्दियों में कौन जाने शेष फिर भी,...
गीत बनकर मैं मिलूँ यदि रागिनी बन आ सको तुम। सो रहा है दिन, गगन की गोद में रजनी जगी है, झलमलाती नील तारों से जड़ी साड़ी फबी है। गूँथ कर आकाश-गंगा मोतियों के हार लाई, पहिन कर रजनी उसे निज वक्ष पर कुछ मुस्कुराई। चित्र अंकित कर रही धरती सरित के तरल पट पर, समझ यह अनुचित, समीरण ने हिलाया हाथ सत्वर। इस मिलन की रात का प्रिय चित्र बनकर मैं मिलूँ रेखा अगर बन आ सको तुम। जा रही है रात, आया प्रात कलियाँ मुस्कराईं, मधुप का...
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए मातृ भूमि...
तुम्हारी प्रेम-वीणा का अछूता तार मैं भी हूँ मुझे क्यों भूलते वादक विकल झंकार मैं भी हूँ मुझे क्या स्थान-जीवन देवता होगा न चरणों में तुम्हारे द्वार पर विस्मृत पड़ा उपहार मैं भी हूँ बनाया हाथ से जिसको किया बर्बाद पैरों से विफल जग में घरौंदों का क्षणिक संसार मैं भी हूँ खिला देता मुझे मारूत मिटा देतीं मुझे लहरें जगत में खोजता व्याकुल किसी का प्यार मैं भी हूँ कभी मधुमास बन जाओ हृदय के इन निकुंजों में प्रतिक्षा में युगों से जल रही पतझाड़...
पीपल की ऊँची डाली पर बैठी चिड़िया गाती है । तुम्हें ज्ञात अपनी बोली में क्या संदेश सुनाती है ? चिड़िया बैठी प्रेम-प्रीति की रीति हमें सिखलाती है । वह जग के बंदी मानव को मुक्ति-मंत्र बतलाती है । वन में जितने पंछी हैं- खंजन, कपोत, चातक, कोकिल, काक, हंस, शुक, आदि वास करते सब आपस में हिलमिल । सब मिल-जुलकर रहते हैं वे, सब मिल-जुलकर खाते हैं । आसमान ही उनका घर है, जहाँ चाहते, जाते हैं । रहते जहाँ, वहीं वे अपनी दुनिया एक बनाते हैं । दिनभर...
हमारा देश भारत है नदी गोदावरी गंगा. लिखा भूगोल पर युग ने हमारा चित्र बहुरंगा. हमारी देश की माटी अनोखी मूर्ति वह गढ़ती. धरा क्या स्वर्ग से भी जो गगन सोपान पर चढ़ती. हमारे देश का पानी हमें वह शक्ति है देता. भरत सा एक बालक भी पकड़ वनराज को लेता. जहां हर सांस में फूले सुमन मन में महकते हैं. जहां ऋतुराज के पंछी मधुर स्वर में चहकते हैं. हमारी देश की धरती बनी है अन्नपूर्णा सी. हमें अभिमान है इसका कि हम इस देश...
यह लघु सरिता का बहता जल कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸ हिमगिरि के हिम से निकल-निकल¸ यह विमल दूध-सा हिम का जल¸ कर-कर निनाद कल-कल¸ छल-छल बहता आता नीचे पल पल तन का चंचल मन का विह्वल। यह लघु सरिता का बहता जल।। निर्मल जल की यह तेज़ धार करके कितनी श्रृंखला पार बहती रहती है लगातार गिरती उठती है बार बार रखता है तन में उतना बल यह लघु सरिता का बहता जल।। एकांत प्रांत निर्जन निर्जन यह वसुधा के हिमगिरि का वन रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...