संकोच-भार को सह न सका पुलकित प्राणों का कोमल स्वर कह गये मौन असफलताओं को प्रिय आज काँपते हुए अधर। छिप सकी हृदय की आग कहीं ? छिप सका प्यार का पागलपन ? तुम व्यर्थ लाज की सीमा में हो बाँध रही प्यासा जीवन। तुम करूणा की जयमाल बनो, मैं बनूँ विजय का आलिंगन हम मदमातों की दुनिया में, बस एक प्रेम का हो बन्धन। आकुल नयनों में छलक पड़ा जिस उत्सुकता का चंचल जल कम्पन बन कर कह गई वही तन्मयता की बेसुध हलचल।...
रात ऊँघ रही है... किसी ने इन्सान की छाती में सेंध लगाई है हर चोरी से भयानक यह सपनों की चोरी है। चोरों के निशान — हर देश के हर शहर की हर सड़क पर बैठे हैं पर कोई आँख देखती नहीं, न चौंकती है। सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह एक ज़ंजीर से बँधी किसी वक़्त किसी की कोई नज़्म भौंकती है।
तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी तुम छवि की परिणीता-सी, अपनी बेसुध मादकता में भूली-सी, भयभीता सी । तुम उल्लास भरी आई हो तुम आईं उच्छ्वास भरी, तुम क्या जानो मेरे उर में कितने युग की प्यास भरी । शत-शत मधु के शत-शत सपनों की पुलकित परछाईं-सी, मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की अनुरंजित अरुणाई-सी ; तुम अभिमान-भरी आई हो अपना नव-अनुराग लिए, तुम क्या जानो कि मैं तप रहा किस आशा की आग लिए । भरे हुए सूनेपन के...
कौन सिखाता है चिड़ियों को चीं-चीं, चीं-चीं करना? कौन सिखाता फुदक-फुदक कर उनको चलना फिरना? कौन सिखाता फुर्र से उड़ना दाने चुग-चुग खाना? कौन सिखाता तिनके ला-ला कर घोंसले बनाना? कौन सिखाता है बच्चों का लालन-पालन उनको? माँ का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको? कुदरत का यह खेल, वही हम सबको, सब कुछ देती। किन्तु नहीं बदले में हमसे वह कुछ भी है लेती। हम सब उसके अंश कि जैसे तरू-पशु-पक्षी सारे। हम सब उसके वंशज...
तब कौन मौन हो रहता है? जब पानी सर से बहता है। चुप रहना नहीं सुहाता है, कुछ कहना ही पड़ जाता है। व्यंग्यों के चुभते बाणों को कब तक कोई भी सहता है? जब पानी सर से बहता है। अपना हम जिन्हें समझते हैं। जब वही मदांध उलझते हैं, फिर तो कहना पड़ जाता ही, जो बात नहीं यों कहता है। जब पानी सर से बहता है। दुख कौन हमारा बाँटेगा हर कोई उल्टे डाँटेगा। अनचाहा संग निभाने में किसका न मनोरथ ढहता...
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ । तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ...
मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक, तेरे चरण चूमता सागर, श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ वाणी में है गीता का स्वर। ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम। मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। हरे-भरे हैं खेत सुहाने, फल-फूलों से युत वन-उपवन, तेरे अंदर भरा हुआ है ...
मेरी वीणा में स्वर भर दो! मैं माँग रहा कुछ और नहीं केवल जीवन की साध यही, इसको पाने ही जीवन की साधना-सरित निर्बाध बही उड़ सकूँ काव्य के नभ में मैं उन्मुक्त कल्पना को पर दो। केवल तुमको अर्पित करने भावों के सुमन खिलाए हैं पहिनाने तुमको ही मैंने गीतों के हार सजाए हैं! अपने सौरभ के रस-कण से हर भाव-सुमन सुरभित कर दो। मैं दीपक वह जिसके उर में बस एक स्नेह की राग भरी जिसने तिल-तिल जल-जल...
मेरे बारे में हवाओं से वो कब पूछेगा खाक जब खाक में मिल जाऐगी तब पूछेगा घर बसाने में ये खतरा है कि घर का मालिक रात में देर से आने का सबब पूछेगा अपना गम सबको बताना है तमाशा करना, हाल-ऐ- दिल उसको सुनाएँगे वो जब पूछेगा जब बिछडना भी तो हँसते हुए जाना वरना, हर कोई रुठ जाने का सबब पूछेगा हमने लफजों के जहाँ दाम लगे बेच दिया, शेर पूछेगा हमें अब न अदब पूछेगा
कल सहसा यह सन्देश मिला सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे। गिरने की गति में मिलकर गतिमय होकर गतिहीन हुआ एकाकीपन से आया था अब सूनेपन में लीन हुआ। यह ममता का वरदान सुमुखि है अब केवल अपवाद मुझे मैं तो अपने को भूल रहा, तुम कर लेती हो याद मुझे। पुलकित सपनों का क्रय करने मैं आया अपने प्राणों से लेकर अपनी कोमलताओं को मैं टकराया पाषाणों से। मिट-मिटकर...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...