जल-जल कर उज्ज्वल कर प्रतिपल प्रिय का उत्सव-गेह जीवन तेरे लिये खड़ा है लेकर नीरव स्नेह प्रथम-किरण तू ही अनंत की तू ही अंतिम रश्मि सुकोमल मेरे मन! तू दीपक-सा जल ‘लौ' के कंपन से बनता क्षण में पृथ्वी-आकाश काल-चिता पर खिल उठता जब तेरा ऊर्म्मिल हास सृजन-पुलक की मधुर रागिणी तू ही गीत, तान, लय अविकल मेरे मन! तू दीपक-सा जल
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त2 की लज़्ज़त3 नहीं बाक़ी हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ इस ख़ाना-ए-हस्त4 से गुज़र जाऊँगा बेलौस5 साया हूँ फ़क़्त6, नक़्श7 बेदीवार नहीं हूँ अफ़सुर्दा8 हूँ इबारत9 से, दवा की नहीं हाजित10 गम़ का मुझे ये जो'फ़11 है, बीमार नहीं हूँ वो गुल12 हूँ ख़िज़ां13 ने जिसे बरबाद किया है उलझूँ किसी दामन से मैं...
तू न तान की मरोर देख, एक साथ चल, तू न ज्ञान-गर्व-मत्त-- शोर, देख साथ चल। सूझ की हिलोर की हिलोरबाज़ियाँ न खोज, तू न ध्येय की धरा-- गुंजा, न तू जगा मनोज। तू न कर घमंड, अग्नि, जल, पवन, अनंग संग भूमि आसमान का चढ़े न अर्थ-हीन रंग। बात वह नहीं मनुष्य देवता बना फिरे, था कि राग-रंगियों-- घिरा, बना-ठना फिरे। बात वह नहीं कि-- बात का निचोड़ वेद हो, बात वह नहीं कि- बात में हज़ार भेद हो। स्वर्ग की तलाश में न भूमि-लोक भूल देख, ...
आओ, नूतन वर्ष मना लें! गृह-विहीन बन वन-प्रयास का तप्त आँसुओं, तप्त श्वास का, एक और युग बीत रहा है, आओ इस पर हर्ष मना लें! आओ, नूतन वर्ष मना लें! उठो, मिटा दें आशाओं को, दबी छिपी अभिलाषाओं को, आओ, निर्ममता से उर में यह अंतिम संघर्ष मना लें! आओ, नूतन वर्ष मना लें! हुई बहुत दिन खेल मिचौनी, बात यही थी निश्चित होनी, आओ, सदा दुखी रहने का जीवन में आदर्श बना लें! आओ, नूतन वर्ष मना लें!
रश्मि चुभते ही तेरा अरुण बान ! बहते कन-कन से फूट-फूट, मधु के निर्झर से सजग गान ! इन कनक-रश्मियों में अथाह; लेता हिलोर तम-सिंधु जाग; बुदबुद् से बह चलते अपार, उसमें विहगों के मधुर राग; बनती प्रवाल का मृदुल कूल, जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान ! नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज, बन गए इन्द्रधनुषी वितान; दे मृदु कलियों की चटख, ताल, हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण; धो स्वर्ण-प्रात में तिमिर-गात, दुहराते अलि निशि-मूक तान ! ...
मम्मी पर है ऐसा जूता, जिसको लाया इब्न बतूता! यह जूता परियों का जूता, यह जूता मणियों का जूता, मोती की लड़ियों का जूता, ढाई तोले सबने कूता, इसको लाया इब्न बतूता! इस जूते की बात निराली, पल में भरता पल में खाली, बच्चे देख बजाते ताली, अजब-अनूठा है यह जूता, इसको लाया इब्न बतूता! इसमें अपने पाँव फँसाकर, हम जाते हैं नानी के घर, इसे पहनकर भग जाता डर, इसको रोके किसमें बूता, इसको लाया इब्न बतूता!
न तुम मेरे न दिल मेरा न जान-ए-ना-तवाँ मेरी तसव्वुर में भी आ सकतीं नहीं मजबूरियाँ मेरी न तुम आए न चैन आया न मौत आई शब-ए-व'अदा दिल-ए-मुज़्तर था मैं था और थीं बे-ताबियाँ मेरी अबस नादानियों पर आप-अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं आप ने नादानियाँ मेरी ये मंज़िल ये हसीं मंज़िल जवानी नाम है जिस का यहाँ से और आगे बढ़ना ये उम्र-ए-रवाँ मेरी
यह संध्या फूली सजीली ! आज बुलाती हैं विहगों को नीड़ें बिन बोले; रजनी ने नीलम-मन्दिर के वातायन खोले; एक सुनहली उर्म्मि क्षितिज से टकराई बिखरी, तम ने बढ़कर बीन लिए, वे लघु कण बिन तोले ! अनिल ने मधु-मदिरा पी ली ! मुरझाया वह कंज बना जो मोती का दोना, पाया जिसने प्रात उसी को है अब कुछ खोना; आज सुनहली रेणु मली सस्मित गोधूली ने; रजनीगंधा आँज रही है नयनों में सोना !
सहज-सहज पग धर आओ उतर; देखें वे सभी तुम्हें पथ पर। वह जो सिर बोझ लिये आ रहा, वह जो बछड़े को नहला रहा, वह जो इस-उससे बतला रहा, देखूँ, वे तुम्हें देख जाते भी हैं ठहर उनके दिल की धड़कन से मिली होगी तस्वीर जो कहीं खिली, देखूँ मैं भी, वह कुछ भी हिली तुम्हें देखने पर, भीतर-भीतर?
अब निशा देती निमंत्रण! महल इसका तम-विनिर्मित, ज्वलित इसमें दीप अगणित! द्वार निद्रा के सजे हैं स्वप्न से शोभन-अशोभन! अब निशा देती निमंत्रण! भूत-भावी इस जगह पर वर्तमान समाज होकर सामने है देश-काल-समाज के तज सब नियंत्रण! अब निशा देती निमंत्रण! सत्य कर सपने असंभव!-- पर, ठहर, नादान मानव!-- हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन! अब निशा देती निमंत्रण!
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...