उर्वशी

रूप का रसमय निमंत्रण या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि मुझको शान्ति से जीने न देती ...

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उर्वशी

पंचम अंक

- -पंचम अंक आरम्भ - -

अहमपि तव सूनावद्य विन्यस्य राज्यम्
विचरित्मृग्यूथान्याश्रयिष्ये वनानि
-विक्रमोर्वशीयम्

क्रन्दंस देशदेशेषु बभ्राम नृपति: स्वयं।
-देवीभागवत

अवेत्य शापदोषं तं सोअथ गत्वा पुरुरवा
हरेराराधनं चक्रे ततो बदरिकाश्रमे
-कथासरित्सागर

स्थान-पुरुरवा का राजप्रसाद


[पुरुरवा, उर्वशी, महामात्य, राज-पंडित, राज-ज्योतिषी,
अन्य सभासद, परिचायक और परिचारिकाएँ यथास्थान
बैठे या खड़े । राजा की मुद्रा अत्यंत चिंताग्रस्त। आरम्भ
में, कई क्षणों तक, कोई कुछ नहीं बोलता]

महामात्य

देव क्षमा हो कुतुक, महामय के विशाल नयनों में,
देख रहा हूँ, आज नई चिंता कुछ घुमड़ रही है ।
महाराज जब से आए हैं, मूक, विषण्ण, अचल हैं
सुखदायक कल रोर रोक, निस्पन्द किए लहरों को
महासिन्धु क्यों, इस प्रकार, अपने में डूब गया है?
सभा सन्न है, कौन विपद हम पर आने वाली है?

पुरुरवा

कुशल करें अर्यमा, मरुद्गण उतर व्योम-मन्डल से
अभिषुत सोम ग्रहण करने को आते रहें भुवन में ।
वरुण रखें प्रज्वलित निरंतर आहवनीय अनल को,
रहे दृष्टि हम पर अभीष्ट-वर्षी अमोघ मघवा की
सभासदो! कल रात स्वप्न मैने विचित्र देखा है ।

सभी सभासद

स्वप्न!

पुरुरवा

स्वप्न ही कहो, यद्यपि मेरे मन की आंखों के
आगे, अब भी, सभी दृश्य वैसे ही घूम रहे हैं,
जैसे, सुप्ति और जागृति के धूमिल, द्वाभ क्षितिज पर
मैने उन्हें सत्य, चेतना, सुस्पष्ट, स्वच्छ देखा था ।
कितनी अद्भुत कथा! दृश्य वह मानव की छलना थी?
या जो मुद्रित पृष्ठ अभी आगे खुलने वाले हैं,
देख गया हूँ उन्हें रात निद्रित भविष्य में जा कर?
कौन कहे, जिसको देखा, वह सारहीन सपना था
या कि स्वप्न है वह जिसको अब जग कर देख रहा हूँ?
क्या जानें, जागरण स्वप्न है या कि स्वप्न जागृति है?

महामात्य

बड़ी विलक्षण बात! देव ने ऐसा क्या देखा है,
जिससे जागृति और स्वप्न की दूरी बिला रही है,
परछाईं पड़ रही अनागत की आगत के मुख पर,
मुँदी हुई पोथी भविष्य की उन्मीलित लगती है?
देव दया कर कहें स्पष्ट, दुश्चिंत्य स्वप्न वह क्या था?
अश्विद्वय की कृपा, विघ्न जो भी हों, टल जाएँगे ।

पुरुरवा

कौन विघ्न किसका? जो है, जो अब होने वाला है,
सब है बद्ध निगूढ, एक ऋत के शाश्वत धागे में;
कहो उसे प्रारब्ध, नियति या लीला सौम्य प्रकृति की ।
बीज गिरा जो यहाँ, वृक्ष बनकर अवश्य निकलेगा ।
किंतु, भीत मैं नहीं; गर्त के अतल, गहन गह्वर में
जाना हो तो उसी वीरता से प्रदीप्त जाऊँगा
जैसे ऊपर विविध व्योम-लोगों में घूम चुका हूँ ।
भीति नहीं यह मौन; मूकता में यह सोच रहा हूँ,
अबकी बार भविष्य कौन-सा वेष लिए आता है ।

महामात्य

महाराज का मन बलिष्ठ; संकल्प-शुद्ध अंतर है ।
जिसकी बाँहों के प्रसाद से सुर अचिंत रहते हैं,
उस अजेय के लिए कहाँ है भय द्यावा-पृथ्वी पर?
प्रभु अभीक ही रहें; किंतु, हे देव! स्वप्न वह क्या था,
जिसकी स्मृति अब तक निषण्ण है स्वामी के प्राणों में?
मन के अलस लेख सपने निद्रा की चित्र-पटी पर
जल की रेखा के समान बनते-बुझते रहते हैं ।

पुरुरवा

देखा, सारे प्रतिष्ठानपुर में कलकल छाया है,
लोग कहीं से एक नव्य वट-पादप ले आए हैं ।
और रोप कर उसे सामने, वहाँ बाह्य प्रांगण में
सीच रहे हैं बड़ी, प्रीति, चिंताकुल आतुरता से ।
मैं भी लिए क्षीरघट, देखा, उत्कंठित आया हूँ;
और खड़ा हूँ सींच दूध से उस नवीन बिरवे को ।
मेरी ओर, परंतु, किसी नागर की दृष्टि नहीं है,
मानो, मैं हूँ जीव नवागत अपर सौर मंडल का,
नगरवासियों की जिससे कोई पहचान नहीं हो ।
तब देखा, मैं चढ़ा हुआ मदकल, वरिष्ठ कुंजर पर
प्रतिष्ठानपुर से बाहर कानन में पहुंच गया हूँ ।
किंतु, उतर कर वहाँ देखता हूँ तो सब सूना है,
मुझे छोड़, चोरी से, मेरा गज भी निकल गया है ।
एकाकी, नि:संग भटकता हुआ विपिन निर्जन में
जा पहुँचा मैं वहाँ जहाँ पर वधूसरा बहती है,
च्यवनाश्रम के पास, पुलोमा की दृगम्बु-धारा-सी ।

उर्वशी

च्यवनाश्रम! हा! हंत! अपाले, मुझे घूँट भर जल दे ।

[अपाला घबरा कर पानी देती है।उर्वशी पानी पीती है।]

पुरुरवा

देवि! आप क्यों सहम उठीं? वह, सचमुच, च्यवनाश्रम था ।
ऋषि तरु पर से अपने सूखे वसन समेट रहे थे ।
घूम रहे थे कृष्णसार मृग अभय वीथि-कुंजों में;
श्रवण कर रहे थे मयूर तट पर से कान लगा कर
मेघमन्द्र डुग-डुग-ध्वनि जलधारा में घट भरने की ।
और, पास ही, एक दिव्य बालक प्रशांत बैठा था
प्रत्यंचा माँजते वीर-कर-शोभी किसी धनुष की
हाय, कहूँ क्या, वह कुमार कितना सुभव्य लगता था!

उर्वशी

दुर्विपाक! दुर्भाग्य! अपाले! तनिक और पानी दे ।
उमड़ प्राण से, कहीं कंठ में, ज्वाला अटक गई है ।
लगता है, आज ही प्रलय अम्बर से फूट पड़ेगा

[पानी पीती है]

पुरुरवा

देवि! स्वप्न से आप अकारण भीत हुए जाती हैं ।
मैं हूँ जहाँ, वहाँ कैसे विध्वंश पहुंच सकता है?
भूल गईं, स्यन्दन मेरा नभ में अबाध उड़ता है?
मैं तो केवल ऋषि-कुमार का तेज बखान रहा था ।
उरु-दंड परिपुष्ट, मध्य कृश, पृथुल, प्रलम्ब भुजाएँ,
व्क्षस्थल उन्नत, प्रशस्त कितना सुभव्य लगता था!
ऊषा विभासित उदय शैल की, मानो, स्वर्ण-शिला हो ।
उफ री, पय:शुभ्रता उन आयत, अलक्श्म नयनों की!
प्राण विकल हो उठे दौड़ कर उसे भेंट लेने को
पर, तत्क्षण सब बिला गया, जानें, किस शून्य तिमिर में!
न तो वहाँ अब ऋषि-कुमार था, न तो कुटीर च्यवन का ।
देखा जिधर, उधर डालों, टहनियों, पुष्पवृंतों पर
देवि! आपका यही कुसुम-आनन जगमगा रहा था
हँसता हुआ, प्रहृष्ट, सत्य ही, सद्य:स्फुटित कमल-सा ।
किंतु, हाय! दुर्भाग्य! जिधर भी बढ़ा स्पर्श करने को
डूब गया वह छली पुष्प पत्तों की हरियाली में ।
चकित, भीत, विस्मित, अधीर तब मैं निरस्त माया से,
अकस्मात उड़ गया छोड-अवनीतल ऊर्ध्व गगन में,
और तैरता रहा, न जानें, कब तक खंड-जलद-सा ।
जगा, अंत को, जब विभावरी पूरी बीत चुकी थी ।
वह बालक था कौन? कौन मुझको छलने आई थी ।
दिखा उर्वशी का प्रसन्न आनन डाली-डाली में।

महामात्य

महाश्चर्य!

एक सभासद

विस्मय अपार!

दूसरा सभासद

यह स्वप्न या कि कविता है
उज्जवलता में रमें, रूप-ध्यायी, रस-मग्न हृदय की?
और उड्डयन तो नैतिक उन्नति की ही महिमा है ।
जो हो, मैं मंगल की शुभ सूचना इसे कहता हूँ

तीसरा सभासद

शांति! ज्योतिषी विश्वमना गणना में लगे हुए हैं ।
सुनें, सिद्ध दैवज्ञ स्वप्न का फल क्या बतलाते हैं ।

विश्वमना

हाय, इसी दिन के निमित्त मैं जीवित बचा हुआ था?
महाराज! यदि कहूँ सत्य तो गिरा व्यर्थ होती है ।
मृषा कहूँ तो क्यों अब तक आदर पाता आया हूँ?
मुझ विमूढ़ को अत: देव मौन ही आज रहने दें;
क्योंकि दीखता है जो कुछ, उसका आधार नहीं है ।

पुरुरवा

किसका है आधार लुप्त? क्या है परिणाम गणित का?
यह प्रहेलिका और अधिक उत्कंठा उपजाती है ।
कहें आप संकोच छोड़ कर, जो कुछ भी कहना हो,
गणित मृषा हो भले, आपको मिथ्या कौन कहेगा?

विश्वमना

वरुण करें कल्याण! देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ ।
अमिट प्रवज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है,
वह आज ही सफल होगा, इसलिए की प्राण-दशा में
शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं ।
अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक
आप प्रव्रजित हो जाएंगे अपने वीर तनय को
राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर ।
पर विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?
अच्छा है, पुत जाए कालिमा ही मेरे आनन पर;
लोग कहें, मर गई जीर्ण हो विद्या विश्वमना की ।
इस अनभ्र आपद् से तो अपकीर्ति कहीं सुखकर है ।

उर्वशी

आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है ।
अरी! जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे ।
महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है ।

(पानी पीती है। दाह अनुभूत होने का भाव)

पुरुरवा

किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी!
आप खिन्न हो निज को हतभागी क्यों कहती हैं?
कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में
छूट गई यदि पुरी, संग होकर हम वहीं चलेंगे ।
आप, न जानें, किस चिंता से चूर हुई जाती हैं!
कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है?

[प्रतीहारी का प्रवेश]

प्रतीहारी

जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं;
कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है!
नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है ।

पुरुरवा

सती सुकन्या! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की?
सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है ।
पुण्योदय के बिना संत कब मिलते हैं राजा को?

[सुकन्या और आयु का प्रवेश]

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