उर्वशी चित्रलेखा से-
अच्छा तो यह आप सखी के संग विराज रही हैं!
अब तो यहीं भेंट हो जाती है सब अप्सरियों से
च्यवन-कुटी है अथवा यह मघवा का मोद-भवन है?
चित्रलेखा
मोद-भवन हो भले सुकन्या का यह; पर अपना तो
राज-भवन है, जहाँ कल्पना और सत्य-संगम से
मनुजों का अगला शशांक-वंशी नरेश जनमा है ।
हम अप्सरा, किंतु, आर्या किस मानव की बेटी हैं?
उर्वशी
बेटी नहीं हुई तो क्या? अब माँ तो हूँ मानव की?
नहीं देखती, रत्नमयी को कैसा लाल दिया है?
चित्रलेखा
कौन कहे, जो तेज दमकता है इसके आनन पर,
प्राप्त हुआ हो इसे अंश वह जननी नहीं, जनक से?
उर्वशी
अरी देखती नहीं, लाल की नन्हीं-सी आंखों में
अब भी तो सुस्पष्ट स्वर्ग के सपने झलक रहे हैं?
टुकुर-टुकुर संतुष्ट भाव से कैसे ताक रहा है?
मानो, हो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी समर्थ देवों-सा!
सुकन्या
सखी! तुम्हारा लाल अभी से बहुत-बहुत नटखट है,
देख रही हूँ बड़े ध्यान से, जब से तुम आई हो,
तुम पर से इस महाधूर्त की दृष्टि नहीं हटती है ।
लो, छाती से लगा जुड़ाओ इसके तृषित हृदय को;
जो भी करूँ, दुष्ट मुझको अपनी माँ क्यो मानेगा?
उर्वशी
अरी! जुड़ाना क्या इसको? ला, दे, इस ह्दय-कुसुम को
लगा वक्ष से स्वयं प्राण तक शीतल हो जाती हूँ
(सुकन्या की गोद से बच्चे को लेकर हृदय से लगाती है)
आह! गर्भ में लिए इसे कल्पना-श्रृंग पर चढ़ कर
किस सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को मैने नहीं छुआ था?
यही चहती थी समेट कर पी लूँ सूर्य-किरण को,
विधु की कोमल रश्मि, तारकॉ की पवित्र आभा को,
जिससे ये अपरूप, अमर ज्योतियाँ गर्भ में जाकर
समा जाएँ इसके शोणित में, हृदय और प्राणों में ।
यही सोचती थी त्रिलोक में जो भी शुभ, सुन्दर है,
बरस जाए सब एक साथ मेरे अंचल में आकर;
मैं समेट सबको रच दूँ मुसकान एक पतली-सी,
और किसी भी भांति उसे जड़ दूँ इसके अधरों पर!
सब का चाहा भला कि इसके मानस की रचना में
समावेश हो जाए दया का, सभी भली बातों का ।
विनय सुनाती रही अगोचर, निराकार, निर्गुण को,
भ्रूण-पिंड को परम देव छू दें अपनी महिमा से ।
वह सब होगा सत्य; लाल मेरा यह कभी उगेगा
पिता-सदृश ही अपर सूर्य बनकर अखंड भूतल में
और भरेगा पुण्यवान यह माता का गुण लेकर
उर-अंतर अनुरक्त प्रजा का शीतल हरियाली से ।
जब होगा यह भूप, प्रचुर धन-धान्यवती भू होगी,
रोग, शोक, परिताप,पाप वसुधा के घट जाएंगे;
सब होंगे सुखपूर्ण, जगत में सबकी आयु बढ़ेगी,
इसीलिए तो सखी! अभी से इसे आयु कहती हूँ ।
(बच्चे को बार-बार चुमकारती है)
कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणों में अकथ, अपार सुखों की!
दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है!
और स्पर्श में यह तरंग-सी क्या है सोम-सुधा की,
अंक लगाते ही आंखों की पलकें झुक जाती हैं!
हाय सुकन्ये! कल से मैं जानें, किस भांति जियूँगी!
सुकन्या
क्यों कल क्या होगा?
उर्वशी
कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा ।
यज्ञ पूर्ण होगा, विमुक्त होते ही आचारों से
कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे ।
और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आंखों से ।
हाय दयित जिसके निमित्त इतने अधीर व्याकुल हैं,
उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है ।
और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी
दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को
न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ ।
भरत-शाप जितना भी कटु था, अब तक वह वर ही था;
उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है ।
सुकन्या
महा क्रूर-कर्मा कोविद; ये भरत बड़े दारुण हैं ।
यह भी क्या वे नहीं जानते, संतति के आने पर
पति-पत्नी का प्रणय और भी दृढ़तर हो जाता है?
बाला रहती बँधी मृदुल धागों से शिरिष-सुमन के,
किंतु,अंक में तनय, पयस के आते ही अंचल में,
वही शिरिष के तार रेशमी कड़ियाँ बन जाते है ।
और कौन है, जो तोड़े झटके से इस बन्धन को?
रेशम जितना ही कोमल उतना ही दृढ़ होता है ।
कौन भामिनी है, जो अंगज पुत्र और प्रियतम में
किसी एक को लेकर सुख से आयु बिता सकती है
कौन पुरन्ध्री तज सकती है पति के लिए तनय को?
कौन सती सुत के निमित्त स्वामी को त्याग सकेगी?
यह संघर्ष कराल! उर्वशी! बड़ा कठिन निर्णय है ।
पुत्र और पति नहीं,पुत्र या केवल पति पाओगी,
सो भी तब, जब छिपा सको निष्ठुर बन सदा तनय को,
और मिटा दो इसी छिपाने में भविष्य बेटे का ।
सखी! दुष्ट मुनि ने कितना यह भीषण शाप दिया है!
इससे तो था श्रेष्ठ भस्म कर देते तुम्हें जलाकर ।
चित्रलेखा
किंतु, जला दें तो सन्ध्या आने पर इन्द्र-सभा में
नाच-नाच कर कौन देवताओं की तपन हरेगी
काम-लोल कटि के कम्पन, भौहों के संचालन से?
सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवों का?
भस्म-समूहों के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं
सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीन-केतन की
अब भी मन्द-मन्द चलती है श्रमित रक्त-धारा में ।
सहे मुक्त प्रहरण अनंग का, दर्प कहाँ वह तन में?
बिबुध पंचशर के बाणों को मानस पर लेते हैं ।
वश में नहीं सुरों के प्रशमन सहज, स्वच्छ पावक का,
ये भोगते पवित्र भोग औरों में वह्नि जगाकर!
कहते हैं, अप्सरा बचे यौवनहर प्रसव-व्यथा से;
और अप्सराएँ इस सुख से बचती भी रहती हैं ।
क्योकि कहीं बस गई भूमि पर वे माताएँ बनकर,
रसलोलुप् दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवों की
लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा, उर के तल्पों पर?
हम कुछ नहीं, रंजिकाएँ हैं मात्र अभुक्त मदन की ।
हाय, सुकन्ये! नियति-शाप से ग्रसित अप्सराओं की
कोई भी तो नहीं विषम वेदना समझ पाता है।
सुकन्या (उर्वशी से)
तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?
कब तक तुम इस भांति नित्य छिपकर वन में आओगी
सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?
और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?
हे भगवान! उर्वशी पर यह कैसी विपद पड़ी है ।
उर्वशी
आने को तो, स्यात्, आज यह अंतिम ही आना है ।
कल से तो फिर लौट पड़ेगी वही सरणि जीवन की,
दिन भर रहना संग-संग प्रियतम के, जहाँ रहें वे,
और बिता देना समग्र रजनी उस प्रणय-कथा में
जिसका कहीं न आदि, न तो मध्यावसान होता है ।
तब भी, जानें, विरह आयु का कैसे झेल सकूँगी?
हाय पुत्र! तू क्यों आया था उसके बन्ध्य उदर में,
अभिशप्ता जो नहीं प्यार माँ का भी दे सकती है?
मैं निमित्त ही रही, सुकन्ये! इस अबोध बालक की
तुम्हे छोड़ कर निखिल लोक में और कौन माता है?
केवल भ्रूण-वहन, केवल प्रजनन मातृत्व नहीं है;
माता वही, पालती है जो शिशु को हृदय लगाकर ।
सखी! दयामयि देवि! शरण्ये! शुभे! स्वसे! कल्याणी!
मैं क्या कहूँ, वंश से बिछुड़ा कब तक आयु रहेगा
यहाँ धर्म की शरण तुम्हारे अंचल की छाया में?
किंतु, पिता-गृह तो, अवश्य ही उसे कभी जाना है
वह हो आज या कि कुछ दिन में या यौवन आने पर ।
अपना सुख तृणवत नगण्य है,उसे छोड़ सकती हूँ ।
किंतु, पुत्र का भाग्य भूमि पर रह कैसे फोड़ूँगी?
देना भेज, उचित जब समझो, मुझसे जनित तनय पर
जभी पड़ेगी दृष्टि दयित की, वज्र आन टूटेगा;
गरज उठेगा भरत-शाप मैं पराधीन पुतली-सी
खिंची हुई क्षिति छोड़ अचानक स्वर्ग चली जाऊँगी ।
छूट जाएँगे अकस्मात वे सुख, जिनके लालच में,
जब से आई यहाँ, कल्प-कानन को भूल गई हूँ ।
यह धरती, यह गगन, मृगों से भरी, हरी अट्वी यह,
ये प्रसून, ये वृक्ष स्वर्ग में बहुत याद आएँगे ।
झलमल-झलमल सरित्सलिल वह ऊषा की लाली से
शस्यों पर बिछली-बिछ्ली आभा वह रजत किरण की,
चहक-चहक उठना वह विहगों का निकुंज-पुंजों में,
स्वर्ग-वासिनी मैं, श्रद्धा से, नमस्कार करती हूँ
अविनश्वर, सौन्दर्यपूर्ण, नश्वर इस महा मही को ।
कितना सुख! कितना प्रमोद! कितनी आनन्द-लहर है!
कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस वसुधा से!
दिन में भी अंकस्थ किए मोहिनी प्रिया छाया को
ये पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते हैं!
कितना हो उठता महान् यह गगन निशा आने पर,
जब उसके उर में विराट नक्षत्र-ज्वार आता है ।
हो उठती यामिनी गहन, तब उन निस्तब्ध क्षणों में,
कौन गान है, जिसे अचेतन अन्धकार गाता है?
आती है जब वायु स्पर्श-सुख-मयी सुदूर क्षितिज से,
कौन बात है, जिसे तृणों पर वह लिखती जाती है?
और गन्धमादन का वह अनमोल भुवन फूलों का!
मृग ही नहीं, विटप-तृण भी कितने सजीव लगते थे!
पत्र-पत्र को श्रवण बना अटवी कैसे सुनती थी
सूक्ष्म निनद, चुपचाप, हमारे चुम्बन, कल कूजन का!
झुक जाती थीं, किस प्रकार, डालियाँ हमें छूने को,
शैलराज, मानो, सपने में बाँहें बढ़ा रहा हो ।
किस प्रकार विचलित हो उठते थे प्रसून कुंजों के,
फेन-फेन होती वह उर्मिल हरियाली शिखरों की
ज्वार बाँध, किस भांति, बादलों को छूने उठती थी?
कैसे वे तटिनियाँ उछलती हुई सुढाल शिला पर
हमें देख चलने लगतीं थीं और अधिक इठला कर!
और हाय! वह एक निर्झरी पिघले हुए सुकृत-सी,
तीर-द्रुमों की छाया में कितनी भोली लगती थी!
लगता था, यह चली आ रही जिस पवित्र उद्गम से,
वहीं कहीं रहते होंगे नारायण कुटी बनाकर ।
आह! गन्धमादन का वह सुख और अंक प्रियतम का!
सखी! स्वर्ग में जो अलभ्य है, उस आनन्द मदिर का,
इसी सरस वसुधा पर मैने छक कर पान किया है ।
व्याप गई जो सुरभि घ्राण में, सुषमा चकित नयन में,
रोमांचक सनसनी स्पर्श-सुख की जो समा गई है
त्वचा-जाल, ग्रीवा, कपोल में, ऊँगली की पोरों में,
धो पाएगा उसे कभी क्या सलिल वियद-गंगा का?
पारिजात-तरु-तले ध्यान में जगी हुई खोजूँगी
उर:देश पर सुखद लक्ष्म प्रियतम के वक्षस्थल का,
रोमांचित सम्पूर्ण देह पर चिन्ह विगत चुम्बन के ।
और कभी क्या भूल सकूँगी उन सुरम्य रभसॉ को,
प्रिय का वह क्रीड़न अभंग मेरे समस्त अंगों से;
रस में देना बिता मदिर शर्वरी खुली पलको में
कभी लगाकर मुझे स्निग्ध अपने उच्छ्वसित हृदय से,
कभी बालकॉ-सा मेरे उर में मुख-देश छिपाकर?
तब फिर आलोड़न निगूढ़ दो प्राणों की ध्वनियों का;
उनकी वह बेकली विलय पाने की एक अपर में;
शोणित का वह ज्वलन, अस्थियों में वह चिंगारी-सी,
स्वयं विभासित हो उठना पुलकित सम्पूर्ण त्वचा का,
मानो, तन के अन्धकार की परतें टूट रही हों ।
और डूब जाना मन का निश्चल समाधि के सुख में,
किसी व्योम के अंतराल में, किसी महासागर में ।
सखि! पृथ्वी का प्रेम प्रभामय कितना दिव्य गहन है!
विसुध तैरते हुए स्वयं अपनी शोणित-धारा में,
क्या जाने, हम किस अदृश्य के बीच पहुंच जाते हैं!
यह प्रदीप्त आनन्द कहाँ सुरपुर की शीतलता में?
पारिजात-द्रुम के फूलों में कहाँ आग होती है?
यह तो यही मर्त्य जगती है, जहाँ स्पर्श के सुख से
अन्धकार में प्रभापूर्ण वातायन खुल पड़ते हैं ।
जल उठती है प्रणय-वह्नि वैसे ही शांत हृदय में,
ज्यों निद्रित पाषाण जाग कर हीरा बन जाता है ।
किंतु, हाय री, नश्वरता इन अतुल, अमेय सुखों की!
अमर बनाकर उन्हें भोगना मुझको भी दुष्कर है,
यद्यपि मैं निर्जर, अमर्त्य, शाश्वत, पीयूषमयी हूँ.
भरत-शाप, जानें, आकर कितना अदूर ठहरा है
घात लगाए हुए एक ही आकस्मिक झटके में,
पृथ्वी से मेरा सुखमय सम्बन्ध काट देने को!
जो भी करूँ सखी! पर, वह दिन आने ही वाला है,
छिन जाएगा जब समस्त सौभाग्य एक ही क्षण में ।
उड़ जाऊँगी छोड़ भूमि पर सुख समस्त भूतल का,
जैसे आत्मा देह छोड़ अम्बर में उड़ जाती है ।
हाय! अंत में मुझ अभागिनी शाप-ग्रस्त नारी को
न तो प्राणप्रिय पुत्र न तो प्रियतम मिलने वाले हैं ।
चित्रलेखा
भरत-शाप दुस्सह, दुरंत, कितना कटु, दुखदायी है!
क्षण-क्षण का यह त्रास सखी! कब तक सहती जाओगी
उस छागी-सी, सतत भीति-कम्पित जिसकी ग्रीवा पर
यम की जिन्ह्वा के समान खर-छुरिका झूल रही हो?
शिशु को किसी भांति पहुंचाकर प्रिय के राजभवन में
अच्छा है, तुम लौट चलो, आज ही रात, सुरपुर को ।
माना, नहीं उपाय शाप से कभी त्राण पाने का;
पर, उसके भय की प्रचण्डता से तो बच सकती हो ।
और अप्सरा संततियों का पालन कब करती है?
उर्वशी
यों बोलो मत सखी! भूमि के अपने अलग नियम हैं ।
सुख है जहाँ, वहीं दुख वातायन से झाँक रहा है ।
यहाँ जहाँ भी पूर्ण स्वरस है, वहीं निकट खाई में
दाँत पंजाती हुई घात में छिपी मृत्यु बैठी है
जो भी करता सुधापान , उसको रखना पड़ता है
एक हाथ रस के घट पर, दूसरा मरण-ग्रीवा पर ।
फिर मैं ही क्यों उसे छोड़ दूँ भीत अनागत भय से?
आयु रहेगा यहीं, दूसरी कोई राह नहीं है ।
सुकन्या
चित्रे! सखी उचित कहती है, इस निरीह पयमुख को
अभी भेजना नहीं निरापद होगा राजभवन में ।
रानी जितनी भी उदार, कुलपाली, दयामयी हों,
विमातृत्व का हम वामा विश्वास नहीं करती हैं ।
दो, उर्वशी! इसे मुझको दो, मैं इसको पालूँगी ।
(उर्वशी की गोद से आयु को ले लेती है और उसे
पुचकारते हुए बोलती जाती है)
यह आश्रम की ज्योति, इन्दु नन्हा इस पर्ण-कुटी का;
सखी! तुम्हारा लाल हमारी आंखों का तारा है ।
घुटनों के बल दौड़-दौड़ मेरा मुन्ना पकड़ेगा
कभी हरिण के कान, कभी डैने कपोत-केकी के ।
और खड़ा होकर चलते ही बड़ी रार रोपेगा
शशकॉ, गिलहरियों, प्लवंग-शिशुओं, कुरंग-छौनों से
फिर कुछ दिन में और तनिक बढ़कर प्रतिदिन जाएगा
होमधेनुओं को लेकर गोचर-अनुकूल विपिन में ।
और सांझ के समय चराकर उन्हें लौट आएगा
सिर पर छोटा बोझ लिए कुश, दर्भ और समिधा का ।
फिर पवित्र होकर, महर्षि के साथ यज्ञ-वेदी पर
बैठ हमारा लाल मंत्र पढ़-पढ़ कर हवन करेगा ।
हवन-धूम से आंखों में जब वाष्प उमड़ आएँगे
तब मैं दोनों नयन पोंछ दूँगी अपने अंचल से ।
शस्त्र-शास्त्र-निष्णात, अंग से बली, विभासित मन से
जब अपना यह आयु पूर्ण कैशोर प्राप्त कर लेगा,
पहुंचा दूँगी स्वयं इसे ले जाकर राज-भवन में ।
तब तक जा, पीयूष पान कर तू मृण्मयी मही का,
चिंता-रहित, अशंक, आयु को कोई त्रास नहीं है ।
उर्वशी
तो मैं चली ।
सुकन्या
कहाँ? बँधने को प्रिय के आलिंगन में?
उर्वशी
उस बन्धन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा;
प्राणों को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ ।
"पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी?"
सखी! सत्य ही, ये विकल्प दारुण, दुरंत, दुस्सह हैं ।
अब मत डाले भाग्य किसी को ऐसी कठिन विपद में ।
[उर्वशी और चित्रलेखा का प्रस्थान]
- - चतुर्थ अंक समाप्त - -
DISCUSSION
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