उर्वशी

रूप का रसमय निमंत्रण या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि मुझको शान्ति से जीने न देती ...

Uravasii 600x350.jpg

उर्वशी

औशीनरी

चले गए?

सभी सभासद

जय हो अनुकम्पामयी राजमाता की ।

औशीनरी

हाँ, मैं अभी राज महिषी थी, चाहे जहाँ कहीं भी
इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेंक रखा था ।
किंतु, नियति की बात! सत्य ही, अभी राजमाता हूँ ।
आ बेटा! लूँ जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगाकर ।

[आयु को हृदय से लगाती है]

कितना भव्य स्वरूप! नयन, नासिका, ललाट, चिबुक में
महाराज की आकृतियों का पूरा बिम्ब पड़ा है ।
हाय, पालती कितने सुख, कितनी उमंग, आशा से,
मिला मुझे होता यदि मेरा तनय कहीं बचपन में ।
पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान पुरुषों को
नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उत्तुंग शिखर पर,
बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में,
पाषाणों पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर
सो तू पला गोद में जिनकी सीमंतिनी-शिखा वे,
और नहीं कोई जाया हैं तपोनिधान च्यवन की;
तप:सिंह की प्रिया, सत्य ही, केहरिणी सतियो में
पुत्र! अकारण नहीं भाग्य ने तुझे वहाँ भेजा था ।
हाय, हमारा लाल चकित कितना निस्तब्ध खड़ा है!
और कौन है, जो विस्मित, निस्तब्ध न रह जाएगा
इस अकांड राज्याभिषेक, उस वट के विस्थापन से
जिसकी छाया हेतु दूर से वह चल कर आया हो?

कितना विषम शोक! पहले तो जनमा वन-कानन में;
जब महार्घ थी, मिली नहीं तब शीतल गोद पिता की ।
और स्वयं आया समीप, तब सहसा चले गए वे
राजपाट, सर्वस्व सौंप, केवल वात्सल्य चुराकर ।
नीरवता रवपूर्न, मौन तेरा, सब भाँति, मुखर है;
बेटा! तेरी मनोव्यथा यह किस पर प्रकट नहीं है?
पर, अब कौन विकल्प? सामने शेष एक ही पथ है
मस्तकस्थ इस राजमुकुट का भार वहन करने का ।
उदित हुआ सौभाग्य आयु! तेरा अपार संकट में
किंतु, छोड़ कर तुझे, विपद में हमें कौन तारेगा?
मलिन रहा यदि तू, किसके मुख पर मुस्कान खिलेगी?
तू उबरा यदि नहीं, महाप्लावन से कौन बचेगा?
पिता गए वन, किंतु, अरे, माता तो यहीं खड़ी है
बेटा! अब भी तो अनाथ नरनाथ नहीं ऐलों का ।
तुझे प्यास वात्सल्य-सुधा की, मैं भी उसी अमृत से
बिना लुटाए कोष हाय! आजीवन भरी रही हूँ ।
फला न कोई शस्य, प्रकृति से जो भी अमृत मिला था,
लहर मारता रहा टहनियो में, सूनी डालों में ।
किंतु, प्राप्त कर तुझे आज, बस, यही भान होता है,
शस्य-भार से मेरी सब डालियाँ झुकी जाती हों ।

हाय पुत्र! मैं भी जीवन भर बहुत-बहुत प्यासी थी
शीतल जल का पात्र अधर से पहले पहल लगा है ।
तप्त बना मत इसे वीरमणिअ! द्विधा, ग्लानि,चिंता से ।
नहीं देखता, मैं विपन्नता में किस भाँति खड़ी हूँ,
गँवा शतऋतु-सम प्रतापशाली, महान भर्त्ता को,
अंतर से उच्छलित वेदना का विस्फोट दबाकर?
और हाय, तब भी, मैं केवल त्रिया, भीरु नारी हूँ;
रुदन छोड़ विधि ने सिरजा क्या और भाग्य नारी का?
पर, किशोर होने पर भी बेटा! तू वीर नृपति है ।
नृपति नहीं टूटते कभी भी निजी विपत्ति-व्यथा से;
अपनी पीड़ा भूल यंत्रणा औरों की हरते हैं ।

हँसते हैं, जब किरण हास्य की हो सबके अधरों पर,
रोते हैं, जब प्रजा-जनों के नयन सिक्त होते हैं
अपनी पीड़ा कहाँ,उसे अपना आनन्द कहाँ है,
जिस पर चढ़ा किरीट, भार दुर्वह् समाज-शासन का?
किंतु, हाय, हो गया यहाँ यह सब क्या एक निमिष में?

महामात्य

घटित हुआ सब, इस प्रकार्, मानो, अदृश्य के कर में
नाच रही हो पराधीन यह सभा दारु-पुतली-सी
सब की बुद्धि समेट, सभी को अपना पाठ सिखा कर
यह नाटक दुखांत भाग्य ने स्वयं यहाँ खेला है ।
कौन जानता था, अनभ्र ही अशनि आज टूटेगी?
मिला कहाँ आभास देवि! हमको आसन्न विपद का?
कुछ तो भाग्य-अधीन और कुछ महाराज के भय से
हम स्तम्भित रह गए; गिरा खोलें-खोलें, तब तक तो
राज-मुकुट नृप से कुमार के सिर पर पहुंच चुका था ।

सब कुछ हुआ, मरुत जैसे अम्बर में दौड़ रहे हों,
जैसे कोई आग शुष्क कानन को जला रही हो;
सब कुछ हुआ, देवि! जैसे हम मनुज नहीं, पत्थर हों,
जैसे स्वयं अभाग्य हमें आगे को हाँक रहा हो
चले गए सम्राट छोड़ हमको अपार विस्मय में,
कह पाए हम कहाँ देवि! जो कुछ हमको कहना था?

औशीनरी

कौन सका कह व्यथा? नहीं देखा, समग्र जीवन में
जो कुछ हुआ देख उसको मैं कितनी मौन रही हूँ
कोलाहल के बीच मूकता की अकम्प रेखा-सी?
वाणी का वर्चस्व रजत है, किंतु, मौन कंचन है ।
पर, क्या मिला, अंत में जाकर, मुझको इस कंचन से?
उतरा सब इतिहास, जहाँ निर्घोष, निनद, कलकल था;
चले गए उस मूक नीड़ की छाया सभी बचाकर
घटनाओं से दूर जहाँ मैं अचल, शांत बैठी थी ।
महाराज कितने उदार, कितने मृदु, भाव-प्रवण थे!
मुझ अभागिनी को उनने कितना सम्मान दिया था!
पर, चलने के समय कृपा अपनी क्यों भूल गए वे?
रहा नहीं क्यों ध्यान, दानवाक्र्ति इस बड़े भवन में
कहीं उपेक्षित शांत एक वह भी धूमिल कोना है,
कभी भूल कर भी जातीं घटनाएं नहीं जहाँ पर,
न तो जहाँ इतिहासों की पदचाप सुनी जाती है;
जहाँ प्रनय नीरव, अकम्प, कामना, स्निग्ध, शीतल है,
अभिलाषाएँ नहीं व्यग्र अपनी ही ज्वालाओं से;
जहाँ नहीं चरणों के नीचे अरुण सेज मूँगों की,
न तो तरंगों में ऊपर नागिनियाँ लहराती हैं;
जहाँ नहीं बसती कृशानु सुशमा कपोल, अधरों की,
न तो छिटकती हैं रह-रह कर चिंगारियाँ त्वचा से;
स्थापित जहाँ शुभेच्छु, समर्पित हृदय विनम्र त्रिया का,

उद्वेगों से अधिक स्वाद है जहाँ शांति, संयम में;
एक पात्र में जहाँ क्शीर, मधुरस दोनों संचित हैं,
छिपे हुए हैं जहाँ सूर्य-शशधर एक ही हृदय में;
जहाँ भामिनी नहीं मात्र प्रेयसी विमुग्ध पुरुष की,
अमृत-दायिनी, बल-विधायिनी माता भी होती है ।
भूल गए क्यों दयित, हाय, उस नीरव, निभृत निलय में
बैठी है कोई अखंड व्रतमयी समाराधन में,
अश्रुमुखी माँगती एक ही भीख त्रिलोक-भरन से,
कण्-भर भी मत अकल्याण् हो प्रभो! कभी स्वामी का ।
जो भी हो आपदा, मुझे दो,। मैं प्रसन्न सह लूँगी,
देव! किंतु मत चुभे तुच्छतम कंटक भी प्रियतम को

किंतु, हाय, हो गई मृषा साधना सकल जीवन की;
मैं बैठी ही रही ध्यान में जोड़े हुए करों को;
चले गए देवता बिना ही कहे बात इतनी भी,
हतभागी! उठ, जाग, देख, मैं मन्दिर से जाता हूँ ।
याग-यज्ञ, व्रत-अनुष्ठान में, किसी धर्म-साधन में
मुझे बुलाए बिना नहीं प्रियतम प्रवृत होते थे ।
तो यह अंतिम व्रत कठोर कैसे सन्यास सधेगा
किए शून्य वामांक, त्याग मुझ सन्यासिनी प्रिया को?
और त्यागना ही था तो जाते-जाते प्रियतम ने
ले लेने दी नहीं धूलि क्यों अंतिम बार पदों की?
मुझे बुलाए बिना अचानक कैसे चले गए वे?
अकस्मात ही मैं कैसे मर गई कांत के मन में?
शुभे! गाँस यह सदा हृदय-तल में सालती रहेगी,
मेरा ही सर्वस्व हाय, मुझसे यों बिछुड गया है,
मानो, उस पर मुझ अभागिनी का अधिकार नहीं हो।

सुकन्या

देवि! यही है नियम;पाश जो क्षणिक, क्षाम, दुर्बल हैं,
वैराग्योन्मुख पुरुष नहीं उन बन्धों से डरता है ।
जन्म-जन्म की जहाँ, किंतु, श्रृखला अभंग पड़ी है,
यती निकल भागता उधर से आंखें सदा चुराकर ।
परामर्श क्यों करे मुक्तिकामी अपने बन्धन से?
गृहिणी की यदि सुने, गेह से कौन निकल सकता है?
विस्मय की क्या बात? यहाँ जो हुआ, वही होना था ।
अचरज नहीं, आपसे मिलकर नृप यदि नहीं गए हैं ।

औशीनरी

पतिव्रते! पर, हाय,चोट यह कितनी तिग्म, विषम है/
कैसी अवमानना1 प्रतारण कितना तीव्र गरल-सा
मैं अवध्य, निर्दोष, विचारा यह क्यों नहीं दयित ने?
छला किसी ने और वज्र आ गिरा किसी के सिर पर
गँवा दिया सर्वस्व हाय, मैने छिप कर छाया में,
अस्वीकृत कर खुली धूप में आंख खोल चलने से ।
देवि! प्रेम के जिस तट पर अप्सरा स्नान करती है,
गई नहीं क्यों मैं तरंग-आकुल उस रसित पुलिन पर?
पछताती हूँ हाय, रक्त आवरण फाड़ व्रीड़ा का
व्यंजित होने दिया नहीं क्यों मैने उस प्रमदा को
जो केवल अप्सरा नहीं, मुझमें भी छिपी हुई थी?
बसी नहीं क्यों कुसुम-दान बन उन विशाल बाँहों में?
लगी फिरी क्यों नहीं पुष्प-सज्र बन उदग्र ग्रीवा से?
बेध रहे थे उठा शरासन जब से वक्ष तिमिर का,
बनी न क्यों शिंजिनी, हाय, तब मैं उस महाधनुष की?
गई नहीं क्यों संग-संग मैं धरणी और गगन में
जहाँ-जहाँ प्रिय को महान घटनाएं बुला रही थीं?
अंकित थे कर रहे प्राणपति जब आख्यान विजय का
पर्ण-पर्ण पर, लहर-लहर् में, उन्नत शिखर-शिखर पर,
समा गई क्यों नहीं, हाय, तब मैं जीवंत प्रभा-सी
बाणों के फलकों, कृशानु की लोहित रेखाओं में?
जीत गई वे जो लहरों पर मचल-मचल चलती थीं,
उड़ सकती थीं खुली धूप में, मेघों भरे गगन में
हारी मैं इसलिए कि मेरे व्रीड़ा-विकल दृगों में
खुली धूप की प्रभा,किरण कोलाहल की गड़ती थी ।
देखा ही कुछ नहीं, कहाँ, क्या महिमा बरस रही है
अंतर की छाया-निवास से बाहर कभी निकल कर
हाय, भाग्य ने मुझे खींच इस त्रपा-त्रस्त छाया से
फेंक दिया क्यों नहीं धूप में, उस उन्मुक्त भुवन में ।
जहाँ तरंगाकुल समुद्र जीवन का लहराता है
और पुरुष हो रणारूढ, विशिखों के निक्षेपन से-
पूर्व, पास में खड़ी प्रिया का मुख निहार लेता है?
हाय, सती मैं ही कदर्य, दोषी, अनुदार, कृपण हूँ,
केवल शुभकामना, मंगलैषा से क्या होता है?
मैं ही दे न पाई भावमय वह आहार पुरुष को
जिसकी उन्हें अपार क्षुधा, उतनी आवश्यकता थी ।
मुझे भ्रांति थी, जो कुछ था मेरा, सब चढ़ा चुकी हूँ;
शेष नहीं अब कोई भी पूजा-प्रसून डाली में;
किंतु, हाय, प्रियतम को जिसकी सबसे अधिक तृषा थी,
अब लगता है चूक गई मैं वही सुरभि देने से ।
रही समेटे अलंकार क्यों लज्जामयी विधु-सी?
बिखर पड़ी क्यों नहीं कुट्टमित, चकित, ललित,लीला में?
बरस गई क्यों नहीं घेर सारा अस्तित्व दयित का
मैं प्रसन्न,उद्दाम, तरंगित, मदिर मेघ-माला-सी?
हार गई मैं हाय! अनुत्तम, अपर ऋद्धि जीवन की
प्राणों के प्रार्थना-भवन में बैठी ध्यान लगाकर ।

सुकन्या

देवि! आपकी व्यथा, सत्य ही, अति दुरंत, दुस्सह है;
आजीवन यह गाँस हृदय से, सचमुच नहीं कढ़ेगी ।
पर, इस ग्लानि,प्रदाह, आत्म-पीड़न से अब क्या होगा?
उन्मूलित वाटिका नहीं फिर से बसने वाली है ।
उसे देख कर जिएँ, नया पादप जो आन मिला है ।
जितना भी सिर धुनें शोक से प्रियतम की विच्युति पर,
किंतु, सुचरिते! यह अचिंत्य विस्मय की बात नहीं है ।
पुरुष नहीं विक्रांत, भीम, दुर्जय, कराल होता है,
जहाँ सामने तथ्य खड़े हों, अरि हों, चट्टानें हों ।
पर, जब कभी युद्ध ठन जाता इसी अजेय पुरुष का
अपने ही मन की तरंग, अपनी ही किसी तृषा से
उससे बढ़कर और कौन कायर जग में होता है?
कर लेता है आत्म-घात, क्या कथा यतीत्व-ग्रहण की?
पर के फेंके हुए पाश से पुरुष नहीं डरता है,
वह, अवश्य ही, काट फेंकता उसे बाहु के बल से ।
पर, फँस जाता जभी वीर अपनी निर्मित उलझन में,
निकल भागने की उसको तब राह नहीं मिलती है ।
इसीलिए दायित्व गहन,दुस्तर गृहस्थ नारी का ।
क्षण-क्षण सजग, अनिन्द्र-दृष्टि देखना उसे होता है,
अभी कहाँ है व्यथा, समर में लौटे हुए पुरुष को
कहाँ लगी है प्यास, पाँव में काँटे कहाँ चुभे हैं?
बुरा किया यदि शुभे! आपने देखा नहीं नृपति के
कहाँ घाव थे, कहाँ जलन थी, कहाँ मर्म-पीड़ा थी?
यह भी नियम विचित्र प्रकृति का, जो समर्थ, उद्भट है,
दौड़ रहा ऊपर पयोधि के खुले हुए प्रांगण में;
और त्रिया जो अबल, मात्र आंसू, केवल करुणा है,
वही बैठ सम्पूर्ण सृष्टि के महा मूल निस्तल में
छिगुनी पर धारे समुद्र को ऊंचा किए हुए है ।
इसीलिए इतिहास, तुच्छ अनुचर प्रकाश, हलचल का,
किसी त्रिया की कथा नहीं तब तक अंकित करता है,
छाँह छोड़ जब तक आकर वह वरवर्णिनी प्रभा में
बैठ नहीं जाती नरत्व ले नर के सिंहासन पर
या जब तक मोहिनी फेंक मदनायित नयन-शरों की
किसी पुरुष को ले जग में विक्षोभ नहीं भरती है ।
देवि! ग्लानि क्या। हम इतिहासों में यदि प्रथित नहीं हैं
अपनी सहज भूमि नारी की धूप नहीं, छाया है
इतिहासों की सकल दृष्टि केन्द्रित, बस एक क्रिया पर ।
किंतु, नारियाँ क्रिया नहीं, प्रेरणा, पीति, करुणा हैं;
उद्गम-स्थली अदृश्य ,जहाँ से सभी कर्म उठते हैं ।
लिखता है इतिहास कथा उस जनाकीर्ण जीवन की;
जहाँ सूर्य का प्रखर ताप है, भीषण कोलाहल है
पर, फैला है जहाँ चान्द्र साम्राज्य मूक नारी का;
वह प्रदेश एकांत, बोलता केवल संकेतों में ।
अंवेषी इतिहास शूरता का, संघर्ष-सुयश का;
किंतु, हाय, शूरता नारियों की नीरव होती है;
वह सशब्द आघात नहीं, ममता है, कष्ट-सहन है ।
सदा दौड़ता ही रहता इतिहास व्यग्र इस भय से,
छूट न जाए कहीं संग भागते हुए अवसर का;
किंतु, अचंचल त्रिया बैठ अपने गम्भीर प्राणों में
अनुद्विग्न, अनधीर काल का पथ देखा करती है ।
पर, तब भी हम छिन्न नहीं इतिहासों की धारा से
कौन नहीं जानता पुरुष जब थकता कभी समर में,
किस मुख का कर ध्यान, याद कर किसके स्निग्ध-दृगों को
क्लांति छोड़ वह पुन: नए पुलकों से भर जाता है?
और कौन प्रति प्रात हाँक नर को बाहर करती है
नई उर्मि, नूतन उमंग-आशा से उसे सजा कर
लड़ने को जा वहाँ, जहाँ जीवन-रण छिड़ा हुआ है,
करने को निज अंशदान इतिहासों के प्रणयन में?
और सांझ के समय पुरुष जब आता लौट समर से,
दिन भर का इतिहास कौन उसके मुख से सुनती है
कभी मन्द स्मिति-सहित, कभी आंखों से अश्रु बहाकर?
नारी क्रिया नहीं, वह केवल क्षमा, शांति, करुणा है ।
इसीलिए, इतिहास पहुंचता जभी निकट नारी के,
हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है ।
हाय, स्वप्न! जानें, भविष्य भू का वह कब आयेगा,
जब धरती पर निनद नहीं, नीरवता राज करेगी;
दिन भर कर संघर्ष पुरुष जो भी इतिहास रचेगा,
बन जाएगा काव्य, सांझ होते ही, भवन-भवन में!
अभी चंड मध्याह्न, सूर्य की ज्वाला बहुत प्रखर है;
दिवस लग्न अनुकूल वह्नि के,पौरुष-पूर्ण गुणों के ।
जब आएगी रात, स्यात, तब शांत, अशब्द क्षणों में
मही सिक्त होगी नरेश्वरी की शीतल महिमा से ।
और देवि! जिन दिव्य गुणों को मानवता कहते हैं
उस्के भी अत्यधिक निकट नर नहीं, मात्र नारी है ।
जितना अधिक प्रभुत्व-तृषा से पीड़ित पुरुष-हृदय है,
उतने पीड़ित कभी नहीं रहते हैं प्राण त्रिया के ।
कहते हैं, जिसने सिरजा था हमें, प्रकांड पुरुष था;
इसीलिए, उसने प्रवृत्ति नर में दी स्वत्व-हरण की ।
और नारियों को विरचा उसने कुछ इस कौशल से,
हम हो जाती हैं कृतार्थ अपने अधिकार गँवा कर ।

किंतु, कभी यदि हमें मिला निर्बाध सुयोग सृजन का,
हम होकर निष्पक्ष सुकोमल ऐसा पुरुष रचेंगी,
कोलाहल, कर्कश, निनाद में भी जो श्रवण करेगा
कातर, मौन पुकार दूर पर खड़ी हुई करुणा की;
और बिना ही कहे समझ लेगा, आँखों-आँखों में,
मूक व्यथा की कसक, आँसुओं की निस्तब्ध गिरा को ।

औशीनरी

कितना मधुर स्वप्न! कैसी कल्पना चान्द्र महिमा की!
नारी का स्वर्णिम भविष्य! जानें, वह अभी कहाँ है!
हम तो चलीं भोग उसको, जो सुख-दुख हमें बदा था,
मिलें अधिक उज्जवल, उदार युग आगे की ललना को

आयु

माँ! हताश मत हो, भविष्य वह चाहे कहीं छिपा हो,
मैं आया हूँ अग्रदूत बन उसी स्वर्ण-जीवन का ।
पिया दूध ही नहीं, जननि! मैं करुणामयी त्रिया के
क्षीरोज्जवल कल्पनालोक में पल कर बड़ा हुआ हूँ ।
जो कुछ मिला मातृ-ममता से, माँके सजल हृदय से,
पिता नहीं, मैने जीवन में माताएं देखी हैं ।
दिया एक ने जन्म, दूसरी माँ ने लगा हृदय से
पाल-पोस कर बड़ा किया आँखों का अमृत पिलाकर;
अब मैं होकर युवा खोजते हुए यहाँ आया हूँ
राज-मुकुट को नहीं, तीसरी माँ के ही चरणों को ।
माँ! मैं पीछे नृप किशोर, पहले तेरा बेटा हूँ ।

[आयु औशीनरी के चरणों पर गिरता है। औशीनरी
उसे उठाकर हृदय से लगाती है और अपने आसूँ पोंछती है।]

सुकन्या

बरस गया पीयूष; देवि! यह भी है धर्म त्रिया का
अटक गई हो तरी मनुज की किसी घाट-अवघट में,
तो छिगुनी की शक्ति लगा नारी फिर उसे चला दे;
और लुप्त हो जाए पुन: आतप,प्रकाश, हलचल से ।
सो वह चलने लगी;
आइए, वापस लौट चलें हम, 
मैं अपने घर, देवि! आप अपने प्रार्थना-भवन में ।
त्यागमयी हम कभी नहीं रुकती हैं अधिक समय तक ।
इतिहासों की आग बुझाकर भी उनके पृष्ठों में।

- - पंचम अंक समाप्त - -

खंडकाव्य "उर्वशी" समाप्त

DISCUSSION

blog comments powered by Disqus

सबसे लोकप्रिय

poet-image

केशर की, कलि की पिचकारी

केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...

poet-image

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

poet-image

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

poet-image

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

poet-image

भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

ad-image