पुरुरवा
इलापुत्र मैं पुरु पदों में नमस्कार करता हूँ ।
देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है?
आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?
सुकन्या
जय हो, सब है कुशल ।
उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने
कहा, "आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है!
अत:, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुंचाना होगा,
जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के" ।
सो, ले आई, अकस्मात ही, इसे; सुयोग नहीं था
पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का ।
सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौंपा था,
उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ ।
बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं ।
[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरुरवा को प्रणाम
करता है। पुरुरवा उसे छाती से लगा लेता है।]
पुरुरवा
महाश्चर्य! अघट घटना! अद्भुत अपूर्व लीला है!
यह सब सत्य-यथार्थ या कि फिर सपना देख रहा हूँ?
पुत्र! देवि! मैं पुत्रवान हूँ? यह अपत्य मेरा है?
जनम चुका है मेरा भी त्राता पुं नाम नरक से?
अकस्मात हो उथा उदित यह संचित पुण्य कहाँ का?
अमृत-अभ्र कैसे अनभ्र ही मुझ पर बरस पड़ा है?
पुत्र! अरे मैं पुत्रवान हूँ, घोषित करो नगर में,
जो हो जहाँ, वहीं से मेरे निकट उसे आने दो ।
द्वार खोल दो कोष-भवन का, कह दो पौर जनों से
जितना भी चाहें, सुवर्ण आकर ले जा सकते हैं
ऐल वंश के महामंच पर नया सूर्य निकला है;
पुत्र-प्राप्ति का लग्न, आज अनुपम, अबाध उत्सव है ।
पुत्र! अरे कोई संभाल रखो मेरी संज्ञा को,
न तो हर्ष से अभी विकल-विक्षिप्त हुआ जाता हूँ ।
पुत्र! अरे, ओ अमृत-स्पर्श! आनन्द-कन्द नयनों के!
प्राणों के आलोक! हाय! तुम अब तक छिपे कहाँ थे?
ऐल वंश का दीप, देवि! यह कब उत्पन्न हुआ था?
और आपने छिपा रखा इसको क्यों निष्ठुरता से?
हाय! भोगने से मेरा कितना सुख छूट गया है!
उर्वशी
अब से सोलह वर्ष पूर्व, पुत्रेष्टि-यज्ञ पावन में
देव! आप यज्ञिय विशिष्ट जीवन जब बिता रहे थे,
च्यवनाश्रम की तपोभूमि में तभी आयु जनमा था
मुझमें स्थापित महाराज के तेजपुंज पावक से
किंतु, छिपा क्यों रखा पुत्र का मुख पुत्रेच्छु पिता से,
आह! समय अब नहीं देव! वह सब रहस्य कहने का ।
लगता है, कोई प्राणों को बेध लौह अंकुश से,
बरबस मुझे खींच इस जग से दूर लिए जाता है ।
पुरुरवा
अच्छा, जो है गुप्त, गुप्त ही उसे अभी रहने दें ।
आतुरता क्या हो रहस्य के उद्घाटित करने की,
जब रहस्य वपुमान सामने ही साकार खड़ा हो?
सभासदो! कल रात स्वप्न में इसी वीर-पुंगव को
प्रत्यंचा माँजते हुए मैने वन में देखा था ।
और बढ़ा ज्यों ही उदग्र मैं इसे अंक भरने को,
यही दुष्ट छल मुझे कहीं कुंजों मे समा गया था ।
किंतु, लाल! अब आलिंगन से कैसे भाग सकोगे?
यह प्रसुप्त का नहीं, जगे का सुदृढ़ बाहु-बन्धन है?
आयु
आयु तक रहा वियुक्त अंक से, यही क्लेश क्या कम है?
तात! आपकी छन्ह छोड़ मैं किस निमित्त भागूँगा?
जब से पाया जन्म, उपोषण रहा धर्म प्राणों का;
हृदय भूख से विकल, पिता! मैं बहुत-बहुत प्यासा हूँ,
यद्यपि सारी आयु तापसी माँ का प्यार पिया है।
पुरुरवा
रुला दिया तुमने तो मेरे चन्द्र! व्यथा यह कह कर ।
सुना देवि! यह लाल हमारा कितना तृषित रहा है
माँ के उर का क्षीर, पिता का स्नेह नहीं पाने से?
[उर्वशी अदृश्य हो चुकी है।]
महामात्य
महाराज! आश्चर्य! उर्वशी देवि यहाँ नहीं हैं?
कहाँ गई? थीं खड़ी अभी तो यहीं निकट स्वामी के?
पुरुरवा
क्यों, जाएँगी कहाँ विमुख हो इस आनन्द सघन से?
किंतु, अभी वे श्रांत-चित्त, कुछ थकी-थकी लगती थीं;
जाकर देखो, स्यात् प्रमद-उपवन में चली गई हों
शीतल, स्वच्छ, प्रसन्न वायु में तनिक घूम आने को ।
सुकन्या
वृथा यत्न; इस राज-भवन में अब उर्वशी नहीं है ।
चली गई वह वहाँ, जहाँ से भूतल पर आई थी
खिंची आपके महाप्रेम के आकुल आकर्षण में ।
भू वंचित हो गई आज उस चिर-नवीन सुषमा से ।
महाराज! उर्वशी मानवी नहीं, देव-बाला थी;
चक्षुराग जब हुआ आपसे , उस विलोल-हृदया ने,
किसी भाँति, कर दिया एक दिन कुपित महर्षि भरत को ।
और भरत ने ही उसको यह दारुण शाप दिया था,
"भूल गई निज कर्म, लीन जिसके स्वरूप-चिंतन में,
जा, तू बन प्रेयसी भूमि पर उसी मर्त्य मानव की ।
किंतु, न होंगे तुझे सुलभ सब सुख गृहस्थ नारी के,
पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाएगी;
सो भी तब तक ही जिस क्षण तक नहीं देख पाएगा
अहंकारिणी! तेरा पति तुझसे उत्पन्न तनय को।"
वही शाप फल गया, उर्वशी चली गई सुरपुर को ।
महाराज! मैं तो इसके हित उद्यत ही आई थी!
क्योंकि ज्ञात था मुझे, आयु को जभी आप देखेंगे,
गरज उठेगा शाप, उर्वशी भू पर नहीं रहेगी ।
किंतु, आयु को कब तक हम वंचित कर रख सकते थे
जाति, गोत्र, सौभाग्य, वंश से, परिजन और पिता से?
हुआ वही, जो कुछ होना था, पश्चाताप वृथा है ।
अब दीजिए आयु को वह, जो कुछ वह माँग रहा है ।
महाराज! सत्य ही आयु का हृदय बहुत प्यासा है ।
[पुरुरवा आयु से अलग हो जाता है]
पुरुरवा
चली गई? सब शून्य हो गया? मैं वियुक्त, विरही हूँ?
देवों को मेरे निमित्त, बस, इतनी ही ममता थी!
लाओ मेरा धनुष, सजाओ गगन-जयी स्यन्दन को,
सखा नहीं, बन शत्रु स्वर्ग-पुर मुझे आज जाना है ।
और दिखाना है, दाहकता किसकी अधिक प्रबल है,
भरत-शाप की या पुरुरवा के प्रचंड बाणों की ।
कहाँ छिपा रखेंगे सुर मेरी प्रेयसी प्रिया को?
रत्नसानु की कनक-कन्दरा में? तो उस पर्वत को
स्वर्ण-धूलि बन वसुन्धरा पर आज बरस जाना है ।
छिन्न-भिन्न होकर मनुष्य के प्रलय-दीप्त बाणों से ।
दिव के वियल्लोक में छाए विपुल स्वर्ण-मेघों में?
तो मेघों के अंतराल होकर अरुद्ध शम्पा-सा
दौड़ेगा मेरा विमान कम्पित कर प्राण सुरों के;
और उलट कर एक-एक मायामय मेघ-पटल को
खोजूँगा, उर्वशी व्योम के भीतर कहाँ छिपी है ।
लाओ मेरा धनुष, यहीं से बाण साध अम्बर में
अभी देवताओं के वन में आग लगा देता हूँ ।
फेंक प्रखर, प्रज्वलित, वह्निमय विशिख दृप्त मघवा को
देता हूँ नैवेद्य मनुजता के विरुद्ध संगर का ।
और सिन्धु में कहीं उर्वशी को फिर छिपा दिया हो,
तो साजो विकराल सैन्य, हम आज महासागर को
मथ कर देंगे हिला, सिन्धु फिर पराभूत उगलेगा
वे सारे मणि-रत्न, बने होंगे जो भी उस दिन से,
जब देवों-असुरों ने इसको पहले-पहल मथा था ।
और उसी मंथन क्रम में बैठी तरंग-आसन पर
एक बार फिर पुन: उर्वशी निकलेगी सागर से
बिखराती मोहिनी उषा की प्रभा समस्त भुवन में,
जैसे वह पहले समुद्र के भीतर से निकली थी!
भूल गए देवता, झेल शत्रुता अमित असुरों की
कितनी बार उन्हें मैने रण में जय दिलवाई है ।
पर, इस बार ध्वंस बनकर जब मैं उन पर टूटूँगा,
आशा है,आप्रलय दाह विशिखों का स्मरण रहेगा;
और मान लेंगे यह भी, उर्वशी कहीं जनमी हो,
देवों की अप्सरा नहीं, वह मेरी प्राणप्रिया है ।
उठो, बजाओ पटह युद्ध के, कह दो पौर जनों से,
उनका प्रिय सम्राट स्वर्ग से वैर ठान निकला है;
साथ चलें, जिसको किंचित भी प्राण नहीं प्यारे हों ।
महामात्य्
महाराज हों शांत; कोप यह अनुचित नहीं, उचित है ।
तारा को लेकर पहले भी भीषण समर हुआ था
दो पक्षों मे बँटे, परस्पर कुपित सुरों-असुरों में ।
और सुरों के, उस रण में भी छक्के छूट गए थे ।
वह सब होगा पुन:, यही यदि रहा इष्ट स्वामी का ।
पर, यद्यपि, यह समर खड़ा होगा मानवों-सुरों में,
किंतु दनुज क्या इस अपूर्व अवसर से अलग रहेंगे?
मिल जाएँगे वे अवश्य आकर मनुष्य सेना में ।
सुरता के ध्वंसन से बढ़्कर उन्हें और क्या प्रिय है
और टिकेंगे किस बूते पर चरण देवताओं के
वहाँ, जहाँ नर-असुर साथ मिलकर उनसे जूझ रहे हों?
इस संगर में महाराज! जय तो अपनी निश्चित है;
मात्र सोचना है, देवों से वैर ठान लेने पर
पड़ न जाएँ हम कहीं दानवों की अपूत संगति में ।
नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्जवल है
कहती हैं नीतियाँ, जिसे भी विजयी समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है ।
डाल न दे शत्रुता सुरों से हमें दनुज-बाँहों में,
महाराज! मैं, इसीलिए, देवों से घबराता हूँ ।
पुरुरवा
कायरता की बात ! तुम्हारे मन को सता रही है
भीति इन्द्र के निथुर वज्र की, देवों की माया की;
किंतु, उसे तुम छिपा रहे हो सचिव! ओढ़ ऊपर से
मिथ्या वसन दनुज-संगति-कल्पना-जन्य दूषण का ।
जब मनुष्य चीखता व्योम का हृदय दरक जाता है
सहम-सहम उठते सुरेन्द्र उसके तप की ज्वाला से ।
और कहीं हो क्रुद्ध मनुज कर दे आह्वान प्रलय का,
स्वर्ग, सत्य ही टूट गगन से भू पर आ जाएगा ।
क्यों लेंगे साहाय्य दनुज का? हम मनुष्य क्या कम हैं?
बजे युद्ध का पटह, सिद्ध हो द्रुत योजना समर की
यह अपमान असह्य, इसे सहने से श्रेष्ठ मरण है ।
[नेपथ्य से आवाज आती है]
"पीना होगा गरल, वेदना यह सहनी ही होगी ।
सावधान! देवों से लड़ने में कल्याण नहीं है ।
देव कौन हैं? शुद्ध, दग्धमल, श्रेष्ठ रूप मानव के;
तो अपने ही श्रेष्ठ रूप से मानव युद्ध करेगा
या उससे जो रूप अभी दानवी, दुष्ट, मलिन है?"
पुरुरवा
यह किसका स्वर? कौन यवनिकाओं में छिपा हुआ है?
जो भी होती घटित आज, अचरज की ही घटना है ।
बड़ी अनोखी बात! कौन हो तुम जो बोल रहे हो
इतने सूक्ष्म विचार? छिपे हो कहाँ, भूमि या नभ में/
[नेपथ्य से आवाज]
मैं प्रारब्ध चन्द्रकुल का, संचित प्रताप तेरा हूँ
बोल रहा हूँ तेरे ही प्राणों के अगम,अतल से ।
अनुचित नहीं गर्व क्षणभंगुर वर्तमान की जय का
पर, अपने में डूब कभी यह भी तूने सोचा है,
तेरे वर्तमान मन पर जिनका भविष्य निर्भर है,
अनुत्पन्न उन शत-सहस्र मनुजों के मुखमंडल पर
कौन बिम्ब, क्या प्रभा, कौन छाया पड़ती जाती है?
जैसे तूने प्रणय-तूलिका और लौह-विशिखों से
ओजस्वी आख्यान आत्मजीवन का आज लिखा है,
वैसे ही कल चन्द्र-वंश वालों के विपुल-हृदय में
लौह और वासना समंवित होकर नृत्य करेंगे
अतुल पराक्रम के प्रकाश में भी यह नहीं छिपेगा
ताराहर विधु के विलास से ये मनुष्य जनमें हैं
चिंतन कर यह जान कि तेरे क्षण-क्षण की चिंता से
दूर-दूर तक के भविष्य का मनुज जन्म लेता है
उठा चरण यह सोच कि तेरे पद के निक्षेपों की
आगामी युग के कानों में ध्वनियाँ पहुंच रही हैं ।
और प्रेम! वह बना नहीं क्यों अश्रुधार करुणा की,
आराधन उन दिव्य देवता का, जो छिपे हुए हैं
रमणी के लावण्य, रमा-मुख के प्रकाश मंडल में?
बना नहीं क्यों वह अखंड आलोक-पुंज जीवन का,
जिसे लिए तू और व्योम में ऊपर उठ सकता था?
अरुण अधर, रक्तिम कपोल, कुसुमाघव घूर्ण दृगों में;
आमंत्रण कितना असह्य माया-मनोज्ञ प्रतिमा का!
ग्रीवा से आकटि समंत उद्वेलित शिखा मदन की,
आलोड़ित उज्जवल असीमता-सी सम्पूर्ण त्वचा में;
वक्ष प्रतीप कमल, जिन पर दो मूँगे जड़े हुए हैं;
त्रिवली किसी स्वर्ण-सरसी में उठती हुई लहर-सी
किंतु, नहीं श्लथ हुईं भुजाएँ किन विक्रमी नरों की
आलिंगन में इस मरीचिका को समेट रखने में?
पृथुल, निमंत्रण-मधुर, स्निग्ध, परिणत, विविक्त जघनों पर
आकर हुआ न ध्वस्त कौन हतविक्रम असृक-स्रवण से?
जिसने भी की प्रीति, वही अपने विदीर्ण प्राणों में
लिए चल रहा व्रण, शोणितमय तिलक प्रेम के कर का;
और चोट जिसकी जितनी ही अधिक, घाव गहरा है,
वह उतना ही कम अधीर है व्यथा-मुक्ति पाने को ।
नारी के भीतर असीम जो एक और नारी है,
सोचा है उसकी रक्षा पुरुषों में कौन करेगा?
वह, जो केवल पुरुष नहीं, है किंचित अधिक पुरुष से;
उर में जिसके सलिल-धार, निश्चल महीद्र प्राणों में,
कलियों की उँगलियाँ, मुट्ठियाँ हैं जिसकी पत्थर की ।
कह सकता है पुरू! कि तू पुरुषाधिक यही पुरुष है?
तो फिर भीतर देख, शिलोच्चय शिखर-शैल मानस का
अचल खड़ा है या प्रवाल-ताडन से डोल रहा है?
यह भी देख, भुजा कुसुमों का दाम कि वज्र-शिला है?
हाथों में फूल ही फूल हैं या कुछ चिंगारी भी?
विपद्व्याधिनी भी जीवन में तुझको कहीं मिली थी?
पूछा जब तूने भविष्य, उसने क्या बतलाया था?
त्रिया! हाय छलना मनोज्ञ वह! पुरुष मग्न हँसता है,
जब चाहिये उसे रो उठना कंठ फाड़, चिल्ला कर ।
पूछ रहा क्या भाग्य ज्योतिषी से, अंकविद, गणक से?
हृदय चीर कर देख प्राण की कुंजी वही पड़ी है ।
अंतर्मन को जगा पूछ, वह जो संकेत करेगा,
तुझे मिलेगी मन:शांति उपवेशित उसी दिशा में ।
बिना चुकाए मूल्य जगत में किसने सुख भोगा है?
तुझ पर भी है पुरू! शेष जो ऋण अपार जीवन का
भाग नहीं सकता तू उसको किसी प्रकार पचाकर ।
नहीं देखता, कौन तेरे नयन समक्ष खड़ा है?
पुरुरवा! यह और नहीं कोई, तेरा जीवन है ।
जो कुछ तूने किया प्राप्त अब तक इसके हाथों से,
देना होगा मूल्य आज गिन-गिन उन सभी क्षणों का ।
पर, कैसे? जा स्वर्ग उर्वशी को फिर ले आएगा?
अथवा अपने महाप्रेम के बलशाली पंखों पर
चढ़ असीम उड्डयन भरेगा मन के महागगन में,
जहाँ त्रिया कामिनी नहीं, छाया है परम विभा की,
जहाँ प्रेम कामना नहीं, प्रार्थना निदिध्यासन है?
खोज रहा अवलम्ब? किंतु, बाहर इस ज्वलित द्विधा का
कोई उत्तर नहीं। पुन: मैं वही बात कहता हूँ,
हृदय चीर कर देख, वहीं पर कुंजी कहीं पड़ी है।
पुरुरवा
देख क्रिया। मंत्रियो! एक क्षण का भी समय नहीं है;
पुरोहित करें स्वस्ति-वाचन शुभ राज-तिलक का ।
विश्वमना का फलादेश चरितार्थ हुआ जाता है ।
मृषा बन्ध विक्रम-विलास का, मृषा मोह-माया का;
इन दैहिक सिद्धियों, कीर्तियों के कंचनावरण में,
भीतर ही भीतर विषण्ण मैं कितना रिक्त रहा हूँ!
अंतर्तम के रूदन, अभावों की अव्यक्त गिरा को
कितनी बार श्रवण करके भी मैने नहीं सुना है!
पर, अब और नहीं, अवहेला अधिक नहीं इस स्वर की,
ठहरो आवाहन अनंत के, मूक निनद प्राणों के!
पंख खोल कर अभी तुम्हारे साथ हुआ जाता हूँ
दिन-भर लुटा प्रकाश, विभावसु भी प्रदोष आने पर
सारी रश्मि समेट शैल के पार उतर जाते हैं
बैठ किसी एकांत, प्रांत, निर्जन कन्दरा, दरी में
अपना अंतर्गगन रात में उद्भासित करने को
तो मैं ही क्यों रहूँ सदा ततता मध्याह्न गगन में?
नए सूर्य को क्षितिज छोड़ ऊपर नभ में आने दो ।
पहुँच गया मेरा मुहुर्त, किरणें समेट अम्बर से
चक्रवाल के पार विजन में कहीं उतर जाने का ।
यह लो अपने घूर्णिमान सिर पर से इसे हटाकर
ऐल-वंश का मुकुट आयु के मस्तक पर धरता हूँ ।
लो, पूरा हो गया राज्य-अभिषेक! कृपा पूषण की ।
ऐल-वंश-अवतंस नए सम्राट आयु की जय हो
महाराज! मैं भार-मुक्त अब कानन को जाता हूँ ।
भाग्य-दोष सध सका नहीं मुझसे कर्त्तव्य पिता का;
अब तो केवल प्रजा-धर्म् है, सो, उसको पालूँगा,
जहाँ रहूँगा, वहीं महाभृत का अभ्युदय मनाकर ।
यती नि:स्व क्या दे सकता है सिवा एक आशिष के?
सभासदो! कालज्ञ आप, सब के सब कर्म-निपुण हैं,
क्या करना पटु को निदेश समयोचित कर्त्तव्यों का?
प्रजा-जनों से मात्र हमारा आशीर्वाद कहेंगे ।
जय हो, चन्द्र-वंश अब तक जितना सुरम्य, सुखकर था,
उसी भाँति वह सुखद रहे आगे भी प्रजा-जनों को ।
[एक ओर से पुरुरवा का निष्क्रमण: दूसरी ओर से
महारानी औशीनरी का प्रवेश]
DISCUSSION
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