दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक- गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। अलसता की-सी लता, किंतु कोमलता की वह कली, सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, छाँह सी अम्बर-पथ से चली। ...
[ प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? ...] रे पपीहे पी कहाँ? खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर, लघु परों से नाप सागर; नाप पाता प्राण मेरे प्रिय समा कर भी कहाँ? हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू, कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू! प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला! मैं स्वयं जल और ज्वाला! दीप सी जलती...
तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या! तारक में छवि, प्राणों में स्मृति पलकों में नीरव पद की गति लघु उर में पुलकों की संस्कृति भर लाई हूँ तेरी चंचल और करूँ जग में संचय क्या? तेरा मुख सहास अरूणोदय परछाई रजनी विषादमय वह जागृति वह नींद स्वप्नमय, खेल-खेल, थक-थक सोने दे मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या? तेरा अधर विचुंबित प्याला तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला तेरा ही मानस मधुशाला फिर पूछूँ क्या मेरे साकी ...
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते। फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा...
सारे जग को पथ दिखलाने- वाला जो ध्रुव तारा है। भारत-भू ने जन्म दिया है, यह सौभाग्य हमारा है।। धूप खुली है, खुली हवा है। सौ रोगों की एक दवा है। चंदन की खुशबू से भीगा- भीगा आँचल सारा है।। जन्म-भूमि से बढ़कर सुंदर, कौन देश है इस धरती पर। इसमें जीना भी प्यारा है, इसमें मरना भी प्यारा है।। चाहे आँधी शोर मचाए, चाहे बिजली आँख दिखाए। हम न झुकेंगे, हम न रुकेंगे, यही हमारा नारा है।। पर्वत-पर्वत पाँव बढ़ाता। सागर की लहरों पर गाता। आसमान में...
[मै सुख से चंचल दुख-बोझिल क्षण-क्षण का जीवन जान चली! मिटने को कर निर्माण चली ...] अलि, मैं कण-कण को जान चली सबका क्रन्दन पहचान चली जो दृग में हीरक-जल भरते जो चितवन इन्द्रधनुष करते टूटे सपनों के मनको से जो सुखे अधरों पर झरते, जिस मुक्ताहल में मेघ भरे जो तारो के तृण में उतरे, मै नभ के रज के रस-विष के आँसू के सब रँग जान चली। जिसका मीठा-तीखा दंशन, अंगों मे भरता सुख-सिहरन, जो पग में चुभकर, कर...
जब किलका को मादकता में हंस देने का वरदान मिला जब सरिता की उन बेसुध सी लहरों को कल कल गान मिला जब भूले से भरमाए से भर्मरों को रस का पान मिला तब हम मस्तों को हृदय मिला मर मिटने का अरमान मिला। पत्थर सी इन दो आंखो को जलधारा का उपहार मिला सूनी सी ठंडी सांसों को फिर उच्छवासो का भार मिला युग युग की उस तन्मयता को कल्पना मिली संचार मिला तब हम पागल से झूम उठे जब रोम रोम को प्यार मिला
हम सब सुमन एक उपवन के एक हमारी धरती सबकी जिसकी मिट्टी में जन्मे हम मिली एक ही धूप हमें है सींचे गए एक जल से हम। पले हुए हैं झूल-झूल कर पलनों में हम एक पवन के हम सब सुमन एक उपवन के।। रंग रंग के रूप हमारे अलग-अलग है क्यारी-क्यारी लेकिन हम सबसे मिलकर ही इस उपवन की शोभा सारी एक हमारा माली हम सब रहते नीचे एक गगन के हम सब सुमन एक उपवन के।। सूरज एक हमारा, जिसकी किरणें उसकी कली खिलातीं, एक हमारा...
शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे न दो ऐसा कहीं न हो के पलटकर न आ सकूँ हर बार दूर जा के सदायें मुझे न दो कब मुझ को ऐतेराफ़-ए-मुहब्बत न था "फ़राज़" कब मैं ने ये कहा था सज़ायें मुझे न दो
बादल आए झूम के। आसमान में घूम के। बिजली चमकी चम्म-चम। पानी बरसा झम्म-झम।। हवा चली है जोर से। नाचे जन-मन मोर-से। फिसला पाँव अरर-धम। चारों खाने चित्त हम।। मेघ गरजते घर्र-घों। मेढक गाते टर्र-टों। माँझी है उस पार रे। नाव पड़ी मँझधार रे।। शाला में अवकाश है। सुंदर सावन मास है। हाट-बाट सब बंद है। अच्छा जी आनंद है।। पंछी भीगे पंख ले। ढूँढ़ रहे हैं घोंसले। नद-नाले नाद पुकारते।। हिरन चले मैदान से। गीदड़ निकले माँद से। गया सिपाही फौज में।...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...