याद

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कल सहसा यह सन्देश मिला

कल सहसा यह सन्देश मिला सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे।   गिरने की गति में मिलकर गतिमय होकर गतिहीन हुआ एकाकीपन से आया था अब सूनेपन में लीन हुआ।   यह ममता का वरदान सुमुखि है अब केवल अपवाद मुझे मैं तो अपने को भूल रहा, तुम कर लेती हो याद मुझे।   पुलकित सपनों का क्रय करने मैं आया अपने प्राणों से लेकर अपनी कोमलताओं को मैं टकराया पाषाणों से।   मिट-मिटकर...

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वे दिन

याद आते हैं फिर बहुत वे दिन               जो बड़ी मुश्किलों से बीते थे !   शाम अक्सर ही ठहर जाती थी देर तक साथ गुनगुनाती थी ! हम बहुत ख़ुश थे, ख़ुशी के बिन भी चाँदनी रात भर जगाती थी !               हमको मालूम है कि हम कैसे               आग को ओस जैसे पीते थे ! घर के होते हुए भी बेघर थे रात हो, दिन हो, बस, हमीं भर थे ! डूब जाते थे मेघ भी जिसमें हम उसी प्यास के समन्दर थे !               उन दिनों मरने की न थी फ़ुरसत,...

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सो न सका

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात   मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात   गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात और...

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फागुन की शाम

घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली-सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!   मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,  ये फागुन की शाम है!   घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी   आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी! अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!   इस...

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मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।  गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥    चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।  कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?    ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?  बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥    किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।  किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥    रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।  बड़े-बड़े...

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आँगन

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में  जाकर चुपचाप खड़े होना  रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना  मन का कोना-कोना    कोने से- फिर उन्हीं सिसकियों का उठना  फिर आकर बाँहों में खो जाना  अकस्मात् मण्डप के गीतों की लहरी  फिर गहरा सन्नाटा हो जाना  दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,  कँपना, बेबस हो गिर जाना    रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना  मन को कोना-कोना  बरसों के बाद उसी सूने-से आँगन में  जाकर चुपचाप खड़े होना !...

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उतरी शाम

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई खोतों पर अँधियारी छाई पश्चिम की सुनहरी धुंधराई टीलों पर, तालों पर इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर धीरे-धीरे उतरी शाम !   आँचल से छू तुलसी की थाली दीदी ने घर की ढिबरी बाली जमुहाई ले लेकर उजियाली जा बैठी ताखों में धीरे-धीरे उतरी शाम !   इस अधकच्चे से घर के आंगन में जाने क्यों इतना आश्वासन पाता है यह मेरा टूटा मन लगता है इन पिछले वर्षों में सच्चे झूठे संघर्षों में ...

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