फागुन की शाम

मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन, ये फागुन की शाम है ...

Dharmavir bharti 600x350.jpg

धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते

उस बँसवट से

इक पीली-सी चिड़िया

उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!

 

मुझे पुकारे!

ताना मारे,

भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन, 

ये फागुन की शाम है!

 

घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं

झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं

तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी

यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी

 

आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी!

अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!

 

इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई

फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी!

यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन!

यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन!

 

लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती!

तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है!

अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले

कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले

ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा

मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा

 

पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से

कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है!

 

ये फागुन की शाम है!

DISCUSSION

blog comments powered by Disqus

सबसे लोकप्रिय

poet-image

केशर की, कलि की पिचकारी

केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...

poet-image

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

poet-image

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

poet-image

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

poet-image

भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

ad-image