दर्शन

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तत्सत्

एक गहन वन में दो शिकारी पहुँचे। वे पुराने शिकारी थे। शिकार की टोह में दूर - दूर घूम रहे थे, लेकिन ऐसा घना जंगल उन्हें नहीं मिला था। देखते ही जी में दहशत होती थी। वहाँ एक बड़े पेड़ की छाँह में उन्होंने वास किया और आपस में बातें करने लगे। एक ने कहा, "आह, कैसा भयानक जंगल है।" दूसरे ने कहा, "और कितना घना!" इसी तरह कुछ देर बात करके और विश्राम करके वे शिकारी आगे बढ़ गए। उनके चले जाने पर पास के शीशम के पेड़ ने बड़ से कहा, "बड़ दादा, अभी तुम्हारी छाँह में...

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नर हो, न निराश करो मन को

नर हो, न निराश करो मन को   कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को   संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलंबन को नर हो, न निराश करो मन को   जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व...

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खेल

मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और बालिका सारे विश्व को भूल, गंगा-तट के बालू और पानी से खिलवाड़ कर रहे थे। बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तट के जल को उछाल रहा था। बालिका अपने पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक भाड़ बना रही थी।   बनाते-बनाते बालिका भाड़ से बोली- "देख ठीक नहीं बना, तो मैं तुझे फोड़ दूंगी।" फिर बड़े प्यार से थपका-थपकाकर उसे ठीक करने लगी। सोचती जाती थी- "इसके ऊपर मैं एक कुटी...

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एक समान

डाल के रंग-बिरंगे फूल   राह के दुबले-पतले शूल   मुझे लगते सब एक समान!     न मैंने दुख से माँगी दया   न सुख ही मुझसे नाखुश गया   पुरानी दुनिया के भी बीच-   रहा मैं सदा नया का नया     धरा के ऊँचे-नीचे बोल   व्योम के चाँद-सूर्य अनमोल   मुझे लगते सब एक समान!     गगन के सजे-बजे बादल   नयन में सोया गंगाजल   चाँद से क्या कम प्यारा है   चाँद के माथे का काजल     ...

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परंपरा

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है   पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है   परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी है, तो सूखी डालों को जलने दो   मगर जो डालें आज भी हरी हैं उन पर तो तरस खाओ मेरी एक बात तुम मान लो   लोगों...

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पक्षी और बादल

ये भगवान के डाकिये हैं, जो एक महादेश से दूसरे महादेश को जाते हैं।   हम तो समझ नहीं पाते हैं, मगर उनकी लायी चिट्ठियाँ पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं।   हम तो केवल यह आँकते हैं कि एक देश की धरती  दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है।   और वह सौरभ हवा में तैरती हुए पक्षियों की पाँखों पर तिरता है। और एक देश का भाप दूसरे देश का पानी बनकर गिरता है।

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मौन

बैठ लें कुछ देर, आओ,एक पथ के पथिक-से प्रिय, अंत और अनन्त के, तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए भाषा मूकता की आड़ में, मन सरलता की बाढ़ में, जल-बिन्दु सा बह जाए। सरल अति स्वच्छ्न्द जीवन, प्रात के लघुपात से, उत्थान-पतनाघात से रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।

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सर्जना के क्षण

एक क्षण भर और  रहने दो मुझे अभिभूत  फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं  ज्योति शिखायें  वहीं तुम भी चली जाना  शांत तेजोरूप!    एक क्षण भर और  लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!  बूँद स्वाती की भले हो  बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से  वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को  भले ही फिर व्यथा के तम में  बरस पर बरस बीतें  एक मुक्तारूप को पकते!

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राजे ने अपनी रखवाली की

राजे ने अपनी रखवाली की; किला बनाकर रहा; बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं । चापलूस कितने सामन्त आए । मतलब की लकड़ी पकड़े हुए । कितने ब्राह्मण आए पोथियों में जनता को बाँधे हुए । कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए, लेखकों ने लेख लिखे, ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे, नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे रंगमंच पर खेले । जनता पर जादू चला राजे के समाज का । लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं । धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा...

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मानव अकेला

भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं वह सहसा दिख जाता है मानव अंगारे-सा--भगवान-सा अकेला।   और हमारे सारे लोकाचार राख की युगों-युगों की परतें हैं।

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केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...

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कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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