खेल

बालिका एकबारगी ही बेवकूफ मनोहर को इस अलौकिक चातुर्य से परिपूर्ण भाड़ के दर्शन के लिए दौड़कर खींच लाने को उद्यत हो गई । मूर्ख लड़का पानी से उलझ रहा है, यहां कैसी जबरदस्त कारगुजारी हुई है-सो नहीं देखता! ऐसा पक्का भाड़ उसने कहीं देखा भी है! पर सोचा-अभी नहीं; पहले कुटी तो बना लूं । यह सोचकर बालिका ने रेत की एक चुटकी ली और बड़े धीरे से भाड़ के सिर पर छोड़ दी । फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी । इस प्रकार चार चुटकी रेत धीरे-धीरे छोड्कर सुरबाला ने भाड़ के सिर पर अपनी कुटी तैयार कर ली । भाड़ तैयार हो गया । पर पड़ोस का भाड़ जब बालिका ने पूरा-पूरा याद किया, तो पता चला, एक कमी रह गई ...

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मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और बालिका सारे विश्व को भूल, गंगा-तट के बालू और पानी से खिलवाड़ कर रहे थे।

बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तट के जल को उछाल रहा था। बालिका अपने पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक भाड़ बना रही थी।

 

बनाते-बनाते बालिका भाड़ से बोली- "देख ठीक नहीं बना, तो मैं तुझे फोड़ दूंगी।" फिर बड़े प्यार से थपका-थपकाकर उसे ठीक करने लगी। सोचती जाती थी- "इसके ऊपर मैं एक कुटी बनाउंगी, वह मेरी कुटी होगी। और मनोहर...? नहीं, वह कुटी में नहीं रहेगा, बाहर खड़ा-खड़ा भाड़ में पत्ते झोंकेगा। जब वह हार जाएगा, बहुत कहेगा, तब मैं उसे अपनी कुटी के भीतर ले लूंगी।

मनोहर उधर पानी से हिल-मिलकर खेल रहा था। उसे क्या मालूम कि यहाँ अकारण ही उस पर रोष और अनुग्रह किया जा रहा है।

 

बालिका सोच रही थी- "मनोहर कैसा अच्छा है, पर वह दंगाई बड़ा है। हमें छेड़ता ही रहता है। अबके दंगा करेगा, तो हम उसे कुटी में साझी नहीं करेंगे। साझी होने को कहेगा, तो उससे शर्त करवा लेंगे, तब साझी करेंगे।‘ बालिका सुरबाला सातवें वर्ष में थी। मनोहर कोई दो साल उससे बड़ा था।

 

बालिका को अचानक ध्यान आया-‘भाड़ की छत तो गरम हो गई होगी। उस पर मनोहर रहेगा कैसे?' फिर सोचा-‘उससे मैं कह दूंगी, भाई, छत बहुत तप रही है। तुम जलोगे, तुम मत आओ। पर वह अगर नहीं माना, मेरे पास वह बैठने को आया ही, तो मैं कहूंगी, भाई, ठहरो, मैं ही बाहर आती हूं। पर वह मेरे पास आने की जिद करेगा क्या...? जरूर करेगा, वह बड़ा हठी है। ...पर मैं उसे आने नहीं दूंगी। बेचारा तपेगा - भला कुछ ठीक है! ...ज्यादा कहेगा, तो मैं धक्का दे दूंगी, और कहूंगी, अरे, जल जाएगा मूर्ख!' यह सोचने पर उसे बड़ा मजा-सा आया, पर उसका मुंह सूख गया। उसे मानो सचमुच ही धक्का खाकर मनोहर के गिरने का हास्योत्पादक और करुण दृश्य सत्य की भांति प्रत्यक्ष हो गया ।

बालिका ने दो-एक पक्के हाथ भाड़ पर लगाकर देखा-भाड़ अब बिलकुल बन गया है । मां जिस सतर्क सावधानी के साथ अपने नवजात शिशु को बिछौने पर लेटाने को छोड़ती है, वैसे ही सुरबाला ने अपना पैर धीरे-धीरे भाड़ के नीचे से खींच लिया । इस क्रिया में वह सचमुच भाड़ को पुचकारती-सी जाती थी । उसके पांव ही पर तो भाड़ टिका है, उसी का आश्रय हट जाने पर बेचारा कहीं टूट न पड़े पैर साफ निकालने पर भाड़ जब ज्यों का त्यों टिका रहा, तब बालिका एक बार आह्लाद से नाच उठी ।

बालिका एकबारगी ही बेवकूफ मनोहर को इस अलौकिक चातुर्य से परिपूर्ण भाड़ के दर्शन के लिए दौड़कर खींच लाने को उद्यत हो गई । मूर्ख लड़का पानी से उलझ रहा है, यहां कैसी जबरदस्त कारगुजारी हुई है-सो नहीं देखता! ऐसा पक्का भाड़ उसने कहीं देखा भी है!

पर सोचा-अभी नहीं; पहले कुटी तो बना लूं । यह सोचकर बालिका ने रेत की एक चुटकी ली और बड़े धीरे से भाड़ के सिर पर छोड़ दी । फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी । इस प्रकार चार चुटकी रेत धीरे-धीरे छोड्कर सुरबाला ने भाड़ के सिर पर अपनी कुटी तैयार कर ली ।

भाड़ तैयार हो गया । पर पड़ोस का भाड़ जब बालिका ने पूरा-पूरा याद किया, तो पता चला, एक कमी रह गई । धुआ कहां से निकलेगा? तनिक सोचकर उसने एक सींक टेढ़ी करके उसमें गाड़ दी । बस, ब्रह्मांड का सबसे संपूर्ण भाड़ और विश्व की सबसे सुंदर वस्तु तैयार हो गई ।

वह उस उजड्ड मनोहर को इस अपूर्व कारीगरी का दर्शन कराएगी पर अभी जरा थोड़ा देख तो और ले । सुरबाला मुंह बाए, आँखें स्थिर करके इस भाड़-श्रेष्ठ को देखकर विस्मित और पुलकित होने लगी । परमात्मा कहां विराजते हैं, कोई इस बाला से पूछे, तो वह बताए इस भाड़ के जादू में ।

मनोहर अपनी ‘सुरी-सुरो-सुर्री' की याद कर, पानी से नाता तोड़, हाथ की लकड़ी को भरपूर जोर से गंगा की धारा में फेंककर जब मुड़ा, तब सुश्री सुरबाला देवी एकटक अपनी परमात्म लीला के जादू को बूझने और सुलझने में लगी हुई थीं ।

मनोहर ने बाला की दृष्टि का अनुसरण कर देखा-श्रीमती जी बिलकुल अपने भाड़ में अटकी हुई हैं । उसने जोर से कहकहा लगाकर एक लात में भाड़ का काम तमाम कर दिया ।

न जाने क्या किला फतह किया हो, ऐसे गर्व से भरकर निर्दयी मनोहर चिल्लाया, "सुर्रो रानी! ''

सुर्रो रानी मूक खड़ी थीं । उनके मुंह पर जहां अभी परम विशुद्ध रस था, वहां एक शून्य फैल गया । रानी के सामने एक स्वर्ग आ खड़ा हुआ था । वह उन्हीं के हाथों का बनाया हुआ था और वह एक व्यक्ति को अपने साथ लेकर उस स्वर्ग की एक-एक मनोरमता और स्वर्गीयता को दिखलाना चाहती थीं । हा, हंत ! वही व्यक्ति आरग और उसने अपनी लात से उसे तोड़-फोड़ डाला! रानी हमारी बड़ी व्यथा से भर गई ।

हमारे विद्वान पाठकों में से कोई होता, तो उन मूर्खों को समझाता-यह संसार क्षणभंगुर है । इसमें दुख क्या और सुख क्या : जो जिससे बनाया गया है वह उसी में लय हो जाता है-इसमें शोक और उद्वेग की क्या बात है? यह संसार जल का है, किसी रोज जल में ही मिल जाने में ही की बुदबुदा फूटकर जाएगा । फूट बुदबुदे

सार्थकता है । जो यह नहीं समझते, वे दया के पात्र हैं । री, मर्खा लड़की, तू समझ । सब ब्रह्मांड ब्रह्म का है, और उसी में लीन हो जाएगा । इससे तू किसलिए व्यर्थ व्यथा सह रही है? रेत का तेरा भाड़ क्षणिक था, क्षण में लुप्त हो गया, रेत में मिल गया । इस पर खेद मत कर, इससे शिक्षा ले । जिसने लात मारकर तोड़ा है

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