आँधियों ही आँधियों में उड़ गया यह जेठ का जलता हुआ दिन, मुड़ गया किस ओर, कब सूरज सुबह का गदर की दीवार के पीछे, न जाने । क्या पता कब दिन ढला, कब शाम हो आई नही है अब नही है एक भी पिछड़ा सिपाही आँधियों की फौज का बाकी हमारे बीच अब तो एक पत्ता भी खड़कता है न हिलता है हवा का नाम भी तो हो हमें अब आँधियों के शोर के बदले मिली है हब्स की बेचैन ख़ामोशी न जाने क्या हुआ सहसा, ठिठक कर, ...
तुम अपनी हो, जग अपना है किसका किस पर अधिकार प्रिये फिर दुविधा का क्या काम यहाँ इस पार या कि उस पार प्रिये। देखो वियोग की शिशिर रात आँसू का हिमजल छोड़ चली ज्योत्स्ना की वह ठण्डी उसाँस दिन का रक्तांचल छोड़ चली। चलना है सबको छोड़ यहाँ अपने सुख-दुख का भार प्रिये, करना है कर लो आज उसे कल पर किसका अधिकार प्रिये। है आज शीत से झुलस रहे ये कोमल अरुण कपोल प्रिये अभिलाषा की मादकता से कर लो निज छवि का...
सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अभी तो पलक में नहीं खिल सकी नवल कल्पना की मधुर चाँदनी अभी अधखिली ज्योत्सना की कली नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अधूरी धरा पर नहीं है कहीं अभी स्वर्ग की नींव का भी पता! सृजन की थकन भूल जा देवता! रुका तू गया रुक जगत का सृजन तिमिरमय नयन में डगर भूल कर कहीं खो गई रोशनी की किरन घने बादलों में कहीं सो गया ...
एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ, आता हुआ दिन छुआ हाथों से गुजरता कल छुआ हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा, फूल-पत्ती, फल छुआ जो मुझे छूने चली हर उस हवा का आँचल छुआ ... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता आग के संपर्क से दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में मैं उबलता रहा पानी-सा परे हर तर्क से एक चौथाई उमर यों खौलते बीती बिना अवकाश सुख कहाँ यों भाप बन-बन कर चुका, रीता, भटकता छानता आकाश आह! कैसा कठिन ......
सौ बातों की एक बात है । रोज़ सवेरे रवि आता है दुनिया को दिन दे जाता है लेकिन जब तम इसे निगलता होती जग में किसे विकलता सुख के साथी तो अनगिन हैं लेकिन दुःख के बहुत कठिन हैं सौ बातो की एक बात है | अनगिन फूल नित्य खिलते हैं हम इनसे हँस-हँस मिलते हैं लेकिन जब ये मुरझाते हैं तब हम इन तक कब जाते हैं जब तक हममे साँस रहेगी तब तक दुनिया पास रहेगी सौ बातों की एक बात है | सुन्दरता पर सब मरते...
मृषा मृत्यु का भय है जीवन की ही जय है । जीव की जड़ जमा रहा है नित नव वैभव कमा रहा है यह आत्मा अक्षय है जीवन की ही जय है। नया जन्म ही जग पाता है मरण मूढ़-सा रह जाता है एक बीज सौ उपजाता है सृष्टा बड़ा सदय है जीवन की ही जय है। जीवन पर सौ बार मरूँ मैं क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं यदि न उचित उपयोग करूँ मैं तो फिर महाप्रलय है जीवन की ही जय है।
वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेत रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
नर हो, न निराश करो मन को कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलंबन को नर हो, न निराश करो मन को जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...