बचपन के खेल

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यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।  मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।    ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।  किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।    तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।  उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।    वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।  अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।    बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।  माँ, तब...

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खेल

मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और बालिका सारे विश्व को भूल, गंगा-तट के बालू और पानी से खिलवाड़ कर रहे थे। बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तट के जल को उछाल रहा था। बालिका अपने पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक भाड़ बना रही थी।   बनाते-बनाते बालिका भाड़ से बोली- "देख ठीक नहीं बना, तो मैं तुझे फोड़ दूंगी।" फिर बड़े प्यार से थपका-थपकाकर उसे ठीक करने लगी। सोचती जाती थी- "इसके ऊपर मैं एक कुटी...

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जब तुम्हारे साथ मेरा खेल हुआ करता था

मेरा खेल साथ तुम्‍हारे जब होता था तब, कौन हो तुम, यह किसे पता था. तब, नहीं था भय, नहीं थी लाज मन में, पर जीवन अशांत बहता जाता था तुमने सुबह-सवेरे कितनी ही आवाज लगाई ऐसे जैसे मैं हूँ सखी तुम्‍हारी हँसकर साथ तुम्‍हारे रही दौड़ती फिरती उस दिन कितने ही वन-वनांत. ओहो, उस दिन तुमने गाए जो भी गान उनका कुछ भी अर्थ किसे पता था. केवल उनके संग गाते थे मेरे प्राण, सदा नाचता हृदय अशांत. हठात् खेल के अंत में आज देखूँ कैसी छवि-- स्‍तब्‍ध आकाश, नीरव...

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कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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