वह तो परमात्मा का केवल साधन मात्र है । परमात्मा तुझे नवीन शिक्षा देना चाहते हैं । लड़की, तू मूर्ख क्यों बनती है? परमात्मा इस शिक्षा को समझ और परमात्मा तक पहुंचने का प्रयास कर । आदि-आदि ।
पर बेचारी बालिका का दुर्भाग्य, कोई विज्ञ धीमान पंडित तत्वोपदेश के लिए गंगा तट पर नहीं पहुंच सका । हमें यह भी संदेह है कि सुर्री एकदम इतनी जड़-मूर्खा है कि यदि कोई परोपकार-रत पंडित परमात्म-निर्देश से वहां पहुंचकर उपदेश देने भी लगते तो वह उनकी बात को नहीं सुनती और न समझती । पर, अब तो वहां निर्बुद्धि शठ मनोहर के सिवा कोई नहीं है, और मनोहर विश्व-तत्व की एक भी बात नहीं जानता । उसका मन न जाने कैसा हो रहा है । कोई जैसे उसे भीतर-ही-भीतर मसोले डालता रहा है । लेकिन उसने बनकर कहा, सुर्री, दुत्त पगली! रूठती है? ''
सुरबाला वैसे ही खड़ी रही ।
"सुर्री, रूठती क्यों है? ''
बाला तनिक न हिली ।
"सुरी सुरी .. ओ, सुरी''
अब बनना न हो सका । मनोहर की आवाज हठात कंपी-सी निकली ।
सुरबाला अब और मुंह फेरकर खड़ी हो गई । स्वर के इस कंपन का सामना
शायद उससे न हो सका ।
"सुरी-ओ सुरिया मैं मनोहर हूं मनोहर! मुझे मारती नहीं!''
यह मनोहर ने उसके पीठ पीछे से कहा और ऐसे कहा, जैसे वह यह प्रकट करना चाहता है कि वह रो नहीं रहा है ।
''हम नहीं बोलते ।'' बालिका से बिना बोले रहा न गया । उसका भाड़ शायद स्वर्गविलीन हो गया । उसका स्थान और बाला की सारी दुनिया का स्थान कांपती हुई मनोहर की आवाज ने ले लिया ।
मनोहर ने बड़ा बल लगाकर कहा, सुरी, मनोहर तेरे पीछे खड़ा है । वह बड़ा दुष्ट है । बोल मत, पर उस पर रेत क्यों नहीं फेंक देती, मार क्यों नहीं देती! उसे एक थप्पड़ लगा-वह अब कभी कसूर नहीं करेगा ।''
बाला ने कड़ककर कहा, ''चुप रहो !''
''चुप रहता हूं पर मुझे देखोगी भी नहीं ?''
''नहीं देखते ।''
''अच्छा मत देखो । मत ही देखो । मैं अब कभी सामने न आऊंगा, मैं इसी लायक हूं ।''
''कह दिया तुमसे, तुम चुप रहो । हम नहीं बोलते ।''
बालिका में व्यथा और क्रोध कभी का खत्म हो चुका था । वह तो पिघलकर बह चुका था । यह कुछ और ही भाव था । यह एक उल्लास था जो ब्याज-कोप का रूप धर बैठा था । दूसरे शब्दों में यह स्त्रीत्व था ।
मनोहर बोला, ''लो सुरी, मैं नहीं बोलता । में बैठ जाता हूं । यहीं बैठा रहूंगा । तुम जब तक न कहोगी, न उठूंगा न बोलूंगा ।''
मनोहर चुप बैठ गया । कुछ क्षण बाद हारकर सुरबाला बोली, ''हमारा भाड़ क्यों तोड़ा? हमारा भाड़ बना के दो !''
''लो अभी लो ।''
''हम वैसा ही लेंगे ।''
- वैसा ही लो, उससे भी अच्छा ।''
उसपै हमारी कुटी थी, उसपै धुएं का रास्ता था ।''
''लो, सब लो । तुम बताती जाओ, मैं बनाता जाऊं ।"
''हम नहीं बताएंगे । तुमने क्यों तोड़ा? तुमने तोड़ा, तुम्हीं बनाओ ।''
''अच्छा, पर तुम इधर देखो तो ।''
''हम नहीं देखते, पहले भाड़ बना के दो ।''
मनोहर ने एक भाड़ बनाकर तैयार किया । कहा, ''लो, भाड़ बन गया ।''
''बन गया ?''
"हां ।''
''धुएं का रास्ता बनाया? कुटी बनाई ?''
''सो कैसे बनाऊं-बताओ तो ।''
''पहले बनाओ तब बताऊंगी ।''
भाड़ के सिर पर एक सींक लगाकर और एक-एक पत्ते की ओट लगाकर कहा, ''बना दिया । ''
तुरंत मुड़कर सुरबाला ने कहा, ''अच्छा दिखाओ ।''
''सींक ठीक नहीं लगी जी'', ''पत्ता ऐसे लगेगा'' आदि-आदि संशोधन कर चुकने पर मनोहर को हुकुम हुआ-
''थोड़ा पानी लाओ, भाड़ के सिर पर डालेंगे ।''
मनोहर पानी लाया ।
गंगाजल से कर-पात्रों द्वारा - वह भाड़ का अभिषेक करना ही चाहता था कि सुरा रानी ने एक लात से भाड़ के सिर को चकनाचूर कर दिया ।
सुरबाला रानी हंसी से नाच उठी । मनोहर उत्फुल्लुता से कहकहा लगाने लगा । उस निर्जन प्रांत में वह निर्मल शिशु हास्य-रव लहरें लेता हुआ व्याप्त हो गया । सूरज महाराज बालकों जैसे लाल-लाल मुंह से गुलाबी-गुलाबी हँसी हँस रहे थे । गंगा मानो जान-बूझकर किलकारियां भर रही थी । और-और वे लंबे ऊंचे-ऊंचे दिग्गज पेड़ दार्शनिक पंडितों की भांति, सब हास्य की सार-शून्यता पर मानो मन-ही-मन गंभीर तत्वालोचन कर, हँसी में भूले हुए मूर्खों पर थोड़ी दया बखाना चाह रहे थे!
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