शाम

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यह संध्या फूली

यह संध्या फूली सजीली !  आज बुलाती हैं विहगों को नीड़ें बिन बोले;  रजनी ने नीलम-मन्दिर के वातायन खोले;  एक सुनहली उर्म्मि क्षितिज से टकराई बिखरी,  तम ने बढ़कर बीन लिए, वे लघु कण बिन तोले !  अनिल ने मधु-मदिरा पी ली !  मुरझाया वह कंज बना जो मोती का दोना, पाया जिसने प्रात उसी को है अब कुछ खोना;  आज सुनहली रेणु मली सस्मित गोधूली ने; रजनीगंधा आँज रही है नयनों में सोना !

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संध्या सुन्दरी

दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक- गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। अलसता की-सी लता, किंतु कोमलता की वह कली, सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, छाँह सी अम्बर-पथ से चली। ...

गरमियों की शाम

आँधियों ही आँधियों में उड़ गया यह जेठ का जलता हुआ दिन, मुड़ गया किस ओर, कब सूरज सुबह का गदर की दीवार के पीछे, न जाने ।    क्या पता कब दिन ढला, कब शाम हो आई  नही है अब नही है एक भी पिछड़ा सिपाही आँधियों की फौज का बाकी   हमारे बीच अब तो एक पत्ता भी खड़कता है न हिलता है हवा का नाम भी तो हो  हमें अब आँधियों के शोर के बदले  मिली है हब्स की बेचैन ख़ामोशी    न जाने क्या हुआ सहसा, ठिठक कर, ...

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साँझ के बादल

ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।   नीलम पर किरनों  की साँझी  एक न डोरी  एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती  सेंदुर और प्रवाल!   कुछ समीप की  कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की  कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम  कुछ में केवल जाल।   ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।

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फागुन की शाम

घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली-सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!   मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,  ये फागुन की शाम है!   घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी   आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी! अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!   इस...

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शाम का स्याह आँचल

शाम का स्याह आँचल पल पल सघन होकर ढक रहा उसकी उदासी। गोमती का ये कल कल सुना रहा है हर पल मानो कोई गीत बासी। सृष्टि क्यों दिख रही है कुछ थकित सी! व्यग्र हवा के झोंके बेध रहे हैं तन मन वृक्ष सारे काँपते हैं । नभचरों की चहचहाहट वापसी की है चाहत खुले परों से गगन को नापते हैं। नीड़ में छिपी आँखें निहारती चकित सी! सुघर सुबह के अप्रतिम यौवन का कैसा क्रूर अवसान। तिमिर पक्ष विजयी पस्त है प्रकाश खत्म...

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उतरी शाम

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई खोतों पर अँधियारी छाई पश्चिम की सुनहरी धुंधराई टीलों पर, तालों पर इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर धीरे-धीरे उतरी शाम !   आँचल से छू तुलसी की थाली दीदी ने घर की ढिबरी बाली जमुहाई ले लेकर उजियाली जा बैठी ताखों में धीरे-धीरे उतरी शाम !   इस अधकच्चे से घर के आंगन में जाने क्यों इतना आश्वासन पाता है यह मेरा टूटा मन लगता है इन पिछले वर्षों में सच्चे झूठे संघर्षों में ...

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हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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