उर्वशी

रूप का रसमय निमंत्रण या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि मुझको शान्ति से जीने न देती ...

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उर्वशी

चतुर्थ अंक

- - चतुर्थ अंक आरम्भ - -

विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्,
शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले
-पद्म्पुराण्

एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव
उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य
मम् हस्ते न्यासीकृत:
-विक्रमोर्वशीयम्

स्थान- महर्षि च्यवन का आश्रम्

[महर्षि की पत्नी सुकन्या उर्वशी के नवजात को
गोद में लिए खड़ी है. चित्रलेखा का प्रवेश]

सुकन्या

अच्छा, तू आ गई चित्रलेखे? निंदिया मुन्ने की,
अकस्मात्, तेरी आहट पाकर यों उचट गई है,
मानो, इसके मन में जो अम्बर का अंश छिपा है
जाग पड़ा हो सुनते ही पद-चाप स्वर्ग की भू पर ।
यह प्रसून छविमान मही-नभ के अद्भुत परिणय का,
जानें, पिता-सदृश रस लोभी होगा क्षार मही का
या देवता-समान मात्र गन्धों का प्रेमी होगा?

चित्रलेखा

मही और नभ दो हैं, ये सब कहने की बातें हैं
खोदो जितनी भूमि शून्यता मिलती ही जायेगी ।
और व्योम जो शून्य दीखता, उसके भी अंतर में
भाँति-भाँति के जलद-खंड घूमते; और पावस में
कभी-कभी रंगीन इन्द्रध्नुषी भी उग आती है ।

सुकन्या

और इन्द्रधनुषी के उगने पर विरक्त अम्बर की क्या होती
है दशा?

चित्रलेखा

तुम्हें ही इसका ज्ञान नहीं है?
योगीश्वर तज योग, तपस्वी तज निदाधमय तप को
रूपवती को देख मुग्ध इस भाँति दौड़ पड़ते हैं,
मानो, जो मधु-शिखा ध्यान में अचल नहीं होती थी,
ठहर गई हो वही सामने युवा कामिनी बनकर
भूल गई, जब किया स्पर्श तुमने ध्यानस्थ च्यवन का,
ऋषि समाधि से किस प्रकार व्याकुल-विलोल जागे थे?

सुकन्या

किंतु, चित्रलेखे! मुझको अपने महर्षि भर्त्ता पर
ग्लानि नहीं, निस्सीम गर्व है!

चित्रलेखा

यही गर्व मुझको भी
हो आता है अनायास उन तेजवंत पुरुषों पर,
बाधक नहीं तपोव्रत जिनके व्यग्र-उदग्र प्रणय का,
न तो प्रेम ही विघ्न डालता जिनके तपश्चरण में;
प्रणय-पाश में बँधे हुए भी जो निमग्न मानस से
उसी महासुख की चोटी पर चढ़े हुए रहते हैं,
जहाँ योग योगी को, कवि को कविता ले जाती है
और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर
जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आंखों को ।
तप का कर उत्सर्ग प्रेम पर तपोनिधान च्यवन ने
मात्र तुम्हे ही नहीं, जगत् भर की सीमंतिनियों को
अमिट, अपार, त्रिलोकजयी गौरव का दान दिया है ।
और पुन: यौवन धारण कर उन अमोघ द्रष्टा ने
दिखा दिया, इन्द्रिय-तर्पण में कोई दोष नहीं है ।
एक प्रेम वह, जो विधुसा ऊपर उठता जाता है
होकर बीचोंबीच किन्हीं दो ऐसे ताल-द्रुमों के
जिन वृक्षों ने कभी प्रणय-आलिंगन नहीं किया है ।
और दूसरा वह, पड़कर जिसके रस-आलोड़न में
दो मानस ही नहीं एक, दो तन भी हो जाते हैं
प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर, केवल आधा है;
मन हो एक, किंतु, इस लय से तन को क्या मिलता है?
केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना, अतृप्ति ललक की;
दो निधि अंत:क्षुब्ध, किंतु संत्रस्त सदा इस भय से,
बाँध तोड़ते ही व्रत की विभा चली जाएगी;
अच्छा है, मन जले, किंतु तन पर तो दाग नहीं है ।
मृषा तर्क, मन मलिन हुआ तो तन में प्रभा कहाँ है?
तन-मन का यह भेद सुकन्ये! मुझे नहीं रुचता है ।
बलिहारी उस पूर्ण प्रेम की जिसकी क्षिप्र लहर में
केवल मन ही नहीं अंग संज्ञा भी खो जाती है ।
धन्य त्रिया वह जो बलिष्ठ नर की पिपासु बाँहों में
आंख मून्द रस-मग्न प्रणय-पीड़न असह्य सहती है,
जैसे बहता कुसुम तरंगित सागर की लहरों पर ।
धन्य पुरुष जो वर्ष-वर्ष निष्काम, उपोंषित रहकर
जथरानल को तीव्र, क्षुधा को दीपित कर लेते हैं ।
सतत भोगरत नर क्या जाने तीक्ष्ण स्वाद जीवन का?
उसे जानता वह, जिसने कुछ दिन उपवास किया हो!
सदा छाँह में पले, प्रेम यह भोग-निरत प्रेमी का;
पर, योगी का प्रेम धूप से छाया में आना है

सुकन्या

एकचारिणी मैं क्या जानूँ स्वाद विविध भोगों का?
मेरे तो आनन्द-धाम केवल महर्षि भर्त्ता हैं ।
योग-भोग का भेद अप्सरा की अबन्ध क्रीड़ा है;
गृहिणी के तो परमदेव आराध्य एक होते हैं,
जिससे मिलता भोग, योग भी वही हमें देता है ।
क्या कुछ मिला नहीं मुझको दयिता महर्षि की होकर?
शिखर-शिखर उड़ने में, जानें, कौन प्रमोद-लहर है!
किंतु, एक तरु से लग सारी आयु बिता देने में
जो प्रफुल्ल, धन, गहन शांति है, वह क्या कभी मिलेगी
नए-नए फूलों पर नित उड़ती फिरनेवाली को?
नहीं एक से अधिक प्राण नारी के भी होते हैं,
तो फिर वह पालती खिलाकर क्या विभिन्न पुरुषों को?
और पुरुष कैसे जी लेता पाए बिना हृदय को?
स्यात् मात्र छू भित्ति योषिता के शरीरमन्दिर की,
धनु, प्रसून, उन्नत तरंग की जहाँ चित्रकारी है ।
पर, ये चित्र अचिर; भौहों के धनुष सिकुड़ जाएँगे,
छूटेगी अरुणिमा कपोलों के प्रफुल्ल फूलों की ।
और वक्ष पर जो तरंग यौवन की लहराती है ।
पीछे समतल छोड़ जरा में जाकर खो जाएगी ।
तब फिर अंतिम शरण कहाँ उस हतभागी नारी को?
यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?
यहाँ देव-मन्दिर में तब तक ही जन जाते हैं,
जब तक हरे-भरे, मृदु हैं पल्लव-प्रसून तोरण के
और भित्तियों के ऊपर सुन्दर, सुकुमार त्वचा है ।
टूट गया यदि हर्म्य, देवता का भी आशु मरण है ।
इसीलिए कहती हूँ, जब तक हरा-भरा उपवन है,
किसी एक के संग बाँध लो तार निखिल जीवन का;
न तो एक दिन वह होगा जब गलित, म्लान अंगों पर
क्षण भर को भी किसी पुरुष की दृष्टि नहीं विरमेगी;
बाहर होगा विजन निकेतन, भीतर प्राण तजेंगे
अंतर के देवता तृषित भीषण हाहाकारों में ।

चित्रलेखा

कौन लक्ष्य?

सुकन्या

जिसको भी समझो ।

चित्रलेखा

मैं तो तृषित नहीं हूँ,
न तो देवता ही व्याकुल मेरे प्रसन्न प्राणों के ।
दृष्टि जहाँ तक भी जाती है, मुझे यही दिखता है,
जब तक खिलते फूल, वायु लेकर सुगन्ध चलती है,
खिली रहूँगी मैं, शरीर में सौरभ यही रहेगा।

सुकन्या

सो, केवल इसलिए कि तुम अप्सरा, सिद्ध नारी हो ।
विगलित कभी कहाँ होता यौवन तुम अप्सरियों का?
पर, यौवन है मात्र क्षणिक छलना इस मर्त्य भुवन में,
ले उसका अवलम्ब मानवी कब तक जी सकती है?

अप्सरियाँ जो करें, किंतु, हम मर्त्य योषिताओं के
जीवन का आनन्द-कोष केवल मधु-पूर्ण हृदय है
हृदय नहीं त्यागता हमें यौवन के तज देने पर,
न तो जीर्णता के आने पर हृदय जीर्ण होता है
एक-दूसरे के उर में हम ऐसे बस जाते हैं,
दो प्रसून एक ही वृंत पर जैसे खिले हुए हों ।
फिर रह जाता भेद कहाँ पर शिशिर, घाम, पावस का?
एक संग हम युवा, संग ही संग वृद्ध होते हैं ।
मिलकर देते खेप अनुद्धतमन विभिन्न ऋतुओं को;
एक नाव पर चढ़े हुए हम उदधि पार करते हैं ।
अप्सरियाँ उद्विग्न भोगतीं रस जिस चिर यौवन का,
उससे कहीं महत् सुख है जो हमें प्राप्त होता है
निश्छल, शांत, विनम्र, प्रेमभरे उर के उत्सर्जन से ।

चित्रलेखा

सचमुच, यह सुख अप्रमेय है, मन ही नन्दि-निलय है
क्षन भर पाकर हृदय-दान जब उतना सुख मिलता है,
तब कितना मिलता होगा यह सुख उन दम्पतियों को
जो सदैव के लिए हृदय उत्सर्जित कर देते हैं ।
किंतु, सुकन्ये! डरी नहीं तू, जब तेरे स्पर्शन से
मुनिसत्तम खण्डित समाधि से कोपाकुल जागे थे?
क्रुद्ध तापसों से तो अप्सरियाँ भी डर जाती हैं ।

सुकन्या

डरी नहीं मैं? हाय चित्रलेखे! कौतुहल से ही
मैने तनिक पलक खींची थी ध्यानमग्न मुनिवर की ।
पर, नयनों के खुलते ही उद्भासित रन्ध्र-युगल से,
लगा, अग्नि ही स्वयं फूट कर कढ़े चले आते हों,
और नहीं कुछ एक ग्रास में मुझे लील जाने को ।
रंच-मात्र भी हिली नहीं, निष्कम्प, चेतनाहीना
खड़ी रही उस भयस्तंभ-पीड़िता, असंज्ञ मृगी-सी
जिसकी मृत्यु समक्ष खड़ी हो मृग-रिपु की आंखों में ।
पर, मैं जली नहीं तत्क्षण पावक ऋषि के नयनों का
परिणत होने लगा स्वयं शीतल मधु की ज्वाला में
मानो, प्रमुदित अनल-ज्वाल जावक में बदल रहा हो
नयन रक्त, पर, नहीं कोप से, आसव की लाली से ।
सहसा फूट पड़ी स्मिति की आभा ऋषि के आनन पर;
लौट गया मेरी ग्रीवा पर आकर हाथ प्रलय का
ज्यों ही हुई सचेत की लज्जा से सुगबुगा उठी मैं
पट सँभाल कर ख्गड़ी देखने लगी बंक लोचन से,
अब, जाने क्या भाव सुलगते हैं महर्षि के मुख पर ।
अनुद्विग्न हो उठे मुनीश्वर, बोले अमृत गिरा से
सौम्ये! हो कल्याण, कहाँ से इस वन में आई हो?
सुर-कुल की शुचि-प्रभा या कि मानव कुल की तनया हो?

कहाँ मिला यह रूप, देखते ही जिसको पावक की
दाहकता मिट गई, स्थाणु में पत्ते निकल रहे हैं?
"वरण करोगी मुझे? तुम्हारे लिए जरा को तज कर
शुभे! तपस्या के बल से यौवन मैं ग्रहण करूँगा
प्रौढ़ मेघ, पादप नवीन,मदकल, किशोर-कुंजर सा ।

डरो नहीं, यह तपोभंग च्युति नहीं,सिद्धि मेरी है ।
पहले भी जब हुआ पूर्ण कटु तप महर्षि कर्दम का,
स्वर्ग नहीं, ऋषि ने वर में नारी मनोज्ञ मांगी थी ।
सो तुम सम्मुख खड़ी तपस्या के फल की आभा-सी,
अब होगा क्या अपर स्वर्ग जिसका सन्धान करूँ मैं?
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?

"मणि-माणिक्य नहीं, तप केवल एक रत्न तापस का;
शुचिस्मिते! मैं वही रत्न तुमको अर्पित करता हूँ ।
हम-तुम मिलकर साथ रहेंगे जहाँ पर्णशाला में,
शुभे! स्वर्ग वरदान मांगने वहाँ स्वयं आएगा."

चित्रलेखा

कीर्त्तिमान की कीर्त्ति, साधना भावुक तपोव्रती की
जो रसमय उद्वेग त्रिया के उर में भर सकती है,
वह उद्वेग भला जागेगा मणि, माणिक्य, मुकुट से?
धन्य वही जो विभव नहीं, यश को अर्पित होती है ।

सुकन्या

चित्रे! मैं भर गई, न जानें, किस अपार महिमा से?
प्रथम-प्रथम ही जाग उठा नारीत्व विभासित होकर ।
लगा, सूर्य में चमक रहा जो, वह प्रकाश मेरा है,
महाव्योम में भरे रत्न् मुझसे ही छिटक पड़े हैं,
नाच रहीं उर्मियाँ भंगिमा ले मेरे चरणों की,
दौड़ रही वन में, जो, वह मेरी ही हरियाली है ।
लौट गए थे हो निराश शत-शत युवराज जहाँ से,
वही द्वार खुल गया श्रवण कर यह प्रशस्ति तापस की,
"हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?'

हाय चित्रलेखे! प्रशस्तियाँ क्या-क्या नहीं सुनी थीं?
किसे नहीं मुख में दिखा था पूर्ण चन्द्र अम्बर का,
नयनों में वारुणी और सीपी की चमक त्वचा में?
पर, अदृश्य जो देव पड़े थे गहन, गूढ़ मन्दिर में,
उनका वन्दन-गान किसी ने कहाँ कभी गाया था?
लौट गए सब देख चमत्कृत शोणित, मांस, त्वचा को,
रंगों के प्राचीर, गन्ध के घेरों से टकराकर;
कोई भी तो नहीं त्वचा के परे पहुंच पाया था ।
सब को लगा मोहिनी-सी मुझमें कुछ भरी हुई है,
पर, यह सम्मोहन-तरंग आती है उमड़ जहाँ से,
भीतर के उस महासिन्धु तक किसकी दृष्टि गई थी?
देखा उसे महर्षि च्यवन ने और सुप्त महिमा को
जगा दिया आयास मुक्त, निश्छल प्रशस्ति यह गाकर,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?

लगा मुझे, सर्वत्र देह की पपरी टूट रही है,
निकल रहीं हैं त्वचा तोड़ कर दीपित नई त्वचाएं;
चला आ रहा फूट अतल से कुछ मधु की धारा-सा,
हरियाली से मैं प्रसन्न आकंठ भरी जाती हूँ ।
रही मूक की मूक, किंतु, अम्बर पर चढ़े हृदय ने
कहा, ‘गूढ़ द्रष्टा महर्षि ,तुम मृषा नहीं कहते हो;
परम सत्य की स्मिति उदार, मैं देवी, मैं नारी हूँ ।
रूप दीर्घ तप का प्रसाद है, विविध साधनाओं से
तातस, प्रग्यावान पुरुष जो सिद्धि लाभ करते हैं,
अनायास ही सुलभ शक्ति वह रूपमती नारी को
नारी का सौन्दर्य विश्व-विजयिनी, अमोघ प्रभा है

"सचमुच ही फूटते स्पर्श से पत्र अपत्र द्रुमों में,
धरती जहाँ चरण उसर में फूल निकल आते हैं ।
मैं अनंत की प्रभा, नहीं अनुचरी किरीत मुकुट की,
प्रणय-पुण्यशीला स्वतंत्र मैं केवल उसे वरुंगी,
जिसमें होगी ज्योति किसी दारुणतम तपश्चरण की ।
किंतु, हाय, तुम एक बार क्यों नहीं पुन: कहते हो,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?

चित्रलेखा

उफ री! मादक घड़ी प्रेम के प्रथम-प्रथम परिचय की!
मर कर भी सखि! मधु-मुहुर्त यह कभी नहीं मरता है ।
जब चाहो, साकार देख लो उसे बन्द आंखों में ।
पर मैं क्यों, इस भांति, स्वयं कंटकित हुई जाती हूँ?
प्रथम प्रेम की स्मृति भी कितनी पुलकपूर्ण होती है!
च्यवन पूज्य सारी वसुधा के, पर, असंख्य ललनाएँ
उन्हें देख्ती हैं अपार श्रद्धा, असीम गौरव से ।
नारी को पर्याय बताकर तप:सिद्धि भूमा का,
सचमुच त्रिया जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है ।

सुकन्या

पूछो मत, वैसे तो, ऋषि की प्रकृति तनिक कोपन है;
मन की रचना में निविष्ट कुछ अधिक अंश पावक का ।
किंतु, नारियों पर, सचमुच, उनकी अपार श्रद्धा है,
और सहज उतनी ही वत्सलता निरीह शिशुओं पर ।
कहते हैं, शिशु को मत देखो अगम्भीर भावों से;
अभी नहीं ये दूर केन्द्र से परम गूढ़ सत्ता के;
जानें, क्या कुछ देख स्वप्न में भी हंसते रहते हैं!
स्यात्, भेद जो खुला नहीं अब तक रहस्य-ज्ञानी पर,
अनायास ही उसे देखते हैं ये सहज नयन से,
क्योंकि दृष्टि पर अभी ज्ञान का केंचुल नहीं चढ़ा है ।
"जिसके भी भीतर पवित्रता जीवित है शिशुता की,
उस अदोष नर के हाथों में कोई मैल नहीं है."
जब उर्वशी यहाँ आई थी पुत्र प्रसव करने को
ऋषि ने देखा था उसको, क्या कहूँ कि किस ममता से?
और रात के समय कहा चिंतन-गम्भीर गिरा में
शुभे! त्रिया का जन्म ग्रहण करने में बड़ा सुयश है
चन्द्राहत कर विजय प्राप्त कर लेना वीर नरों पर
बड़ी शक्ति है; शुचिस्मिते! शूरता इसे कहता हूँ ।
"और नारियों में भी श्लथ, गर्भिणी, सत्वशीला को
देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा सी हो आती है ।
कितनी विवश, किंतु कितनी लोकोत्तर वह लगती है!
"देह-कांति पीतिमा-युक्त; गति नहीं पदों के वश में;
चल लेती है किसी भांति पीवर उस मेघाली-सी
जो समुद्र का जल पीकर मंथर डगमगा रही हो ।
आकृति ओंप-विहीन, किंतु, वह रहित नहीं भावों से;
फिर भी कोई रंग देर तक ठहर नहीं पाता है,
विवशा के वश में, मानो, अब ये उर्मियाँ नहीं हों ।
दृग हो जाते वक्र या कि बाहर मन के बन्धन से;
देख नहीं पाती, जैसे देखना चाहती है वह;
यही बेबसी मुख पर आकुलता बन छा जाती है."
निस्सहाय, उदरस्थ भविष्यत के अधीन वह दीना
किस प्रकार रख सके भला अपने वश में अपने को?
जो चाहता भविष्य, वक्त्र पर वही भाव आते हैं ।
मानो, जो ले जन्म कभी तुतली वाणी बोलेगा,
लगा भेजने वह अजात तुतले संकेत अभी से ।
सत्त्ववती नारी अंकन-पट है भविष्य के कर का ।
कितनी सह यातना पालती त्रिया भविष्य जगत का?
कह सकता है कौन पूर्ण महिमा इस तपश्चरण की?"
और प्रसूता के समीप से जब महर्षि आए थे,
बोले थे, "उर्वशी अभी, देखा कैसी लगती थी,
पड़ी हुई निस्तब्ध शमित पीड़ा की शांत कुहू में?
तट पर लगी अचल नौका-सी जो अदृश्य में जाकर
दृश्य जगत के लिए सार्थ जीवन का ले आई हो,
और रिक्त होकर प्रभार से अब अशेष तन्द्रा में
याद कर रही हो धुन्धली बातें अदृश्य के तट की ।
बाँध रहा जो तंतु लोक को लोकोत्तर जगती से,
उसका अंतिम छोर, न जाने, कहाँ अदृश्य छिपा है ।
दृश्य छोर है, किंतु, यहाँ प्रत्यक्ष त्रिया के उर में!
नारी ही वह महासेतु, जिस पर अदृश्य से चलकर
नए मनुज, नव प्राण दृश्य जग में आते रहते हैं ।
नारी ही वह कोष्ठ, देव, दानव, मनुज से छिपकर
महाशून्य, चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है ।
सच पूछो तो, प्रजा-सृष्टि में क्या है भाग पुरुष का?
यह तो नारी ही है, जो सब यज्ञ पूर्ण करती है ।
सत्त्व-भार सहती असंग, संतति असंग जनती है;
और वही शिशु को ले जाती मन के उच्च निलय में,
जहाँ निरापद, सुखद कक्ष है शैशव के झूले का ।
शुभे! सदा शिशु के स्वरूप में ईश्वर ही आते हैं ।
महापुरुश की ही जननी प्रत्येक जननि होती है;
किंतु, भविष्यत को समेट अनुकूल बना लेने का
मिलता कहाँ सुयोग विश्व की सारी माताओं को?
तब भी, उनका श्रेय सुचरिते! अल्प नहीं, अद्भुत है."

(उर्वशी का प्रवेश)

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