उर्वशी
स्वर्णदी, सत्य ही, वह जिसमें उर्मियाँ नहीं, खर ताप नहीं
देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं
पर, ओ, जीवन के चटुल वेग! तू होता क्यों इतना कातर ?
तू पुरुष तभी तक, गरज रहा जब तक भीतर यह वैश्वानर ।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सखा-मित्र त्रिभुवन तेरा,
चलता है भूतल छोड़ बादलों के ऊपर स्यन्दन तेरा ।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है,
अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है ।
पथ नहीं रोकते सिंह, राह देती है सघन अरण्यानी
तब तक ही शीष झुकाते हैं सामने प्रांशु पर्वत मानी ।
सुरपति तब तक ही सावधान रहते बढ़कर अपनाने को,
अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को ।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक भाव द्वन्द्व के जगते हैं,
बारी-बारी से मही, स्वर्ग दोनों ही सुन्दर लगते हैं
मरघट की आती याद तभी तक फुल्ल प्रसूनों के वन में
सूने श्मशान को देख चमेली-जूही फूलती हैं मन में
शय्या की याद तभी तक देवालय में तुझे सताती है,
औ' शयन कक्ष में मूर्त्ति देवता की मन में फिर जाती है ।
किल्विष के मल का लेश नहीं, यह शिखा शुभ्र पावक केवल,
जो किए जा रहा तुझे दग्ध कर क्षण-क्षण और अधिक उज्ज्वल ।
जितना ही यह खर अनल-ज्वार शोणित में उमह उबलता है ।
उतना ही यौवन-अगुरु दीप्त कुछ और धधक कर जलता है ।
मैं इसी अगुरु की ताप-तप्त, मधुमयी गन्ध पीने आई,
निर्जीव स्वर्ग को छोड़ भूमि की ज्वाला में जीने आई
बुझ जाए मृत्ति का अनल, स्वर्गपुर का तू इतना ध्यान न कर
जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर ।
तू नहीं जानता इसे, वस्तु जो इस ज्वाला में खिलती है,
सुर क्या सुरेश के आलिंगन में भी न कभी वह मिलती है ।
यह विकल, व्यग्र, विह्वल प्रहर्ष सुर की सुन्दरी कहां पाए ?
प्रज्वलित रक्त का मधुर स्पर्श नभ की अप्सरी कहां पाए ?
वे रक्तहीन,शुची, सौम्य पुरुष अम्बरपुर के शीतल, सुन्दर,
दें उन्हें किंतु क्या दान स्वप्न जिनके लोहित, संतप्त, प्रखर?
यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल और ज्वलित भी है,
मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है ।
योगी अनंत, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला,
भोगी ज्वलंत, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला;
मन की असीमता में, निबद्ध नक्षत्र, पिन्ड, ग्रह, दिशाकाश,
तन में रसस्विनी की धारा, मिट्टी की मृदु, सोन्धी सुवास;
मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है,
वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है ।
तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,
फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ अपने आलिंगन में भर ले ।
मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ,
छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ ।
आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंत:सर में मज्जित करके,
हर लूंगी मन की तपन चान्दनी, फूलों से सज्जित करके ।
रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,
फूलों की छाँह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी।
पुरुरवा
तुम मेरे बहुरंगे स्वप्न की मणि-कुट्टिम प्रतिमा हो,
नहीं मोहती हो केवल तन की प्रसन्न द्युति से ही,
पर, गति की भंगिमा-लहर से, स्वर से, किलकिंचित से,
और गूढ़ दर्शन-चिंतन से भरी उक्तियों से भी ।
किंतु, अनल की दाहक्ता यह दर्शन हर सकता है?
हर सकते हैं उसे मात्र ये दोनों नयन तुम्हारे,
जिनके शुचि, निस्सीम, नील-नभ में प्रवेश करते ही
मन के सारे द्विधा-द्वन्द्व, चिंता-भरम मिट जाते हैं ।
या प्रवाल-से अधर दीप्त, जिनका चुम्बन लेते ही
धुल जाती है श्रांति, प्राण के पाटल खिल पड्ते हैं
और उमड़ आसुरी शक्ति फिर तन में छा जाती है
किंतु, हाय री, लहर वह्नि की, जिसे रक्त कहते हैं;
किंतु, हाय री, अविच्छिन्न वेदना पुरुष के मन की ।
कर्पूरित, उन्मद, सुरम्य इसके रंगीन धुएँ में
जानें, कितनी पुष्पमुखी आकृतियाँ उतराती हैं
रंगों की यह घटा ! व्यग्र झंझा यह मादकता की!
चाहे जितनी उड़े बुद्धि पर राह नहीं पाती है ।
छिपता भी यदि पुरुष कभी क्षण-भर को निभृत निलय में
यही वह्नि फिर उसे खींच् मधुवन में ले आती है ।
अप्रतिहत यह अनल! दग्ध हो इसकी दाहकता से
कुंज-कुंज में जगे हुए कोकिल क्रन्दन करते हैं ।
घूणि चक्र, आंसू, पुकार, झंझा, प्रवेग, उद्वेलन,
करते रहते सभी रात भर दीर्ण-विदीर्ण तिमिर को,
और प्रात जब महा क्षुब्ध प्लावन पग फैलाता है,
जगती के प्रहरी-सेवित सब बन्ध टूट जाते हैं ।
दुर्निवार यह वह्नि, मुग्ध इसकी लौ के इंगित से
उठते हैं तूफान और संसार मरा करता है ।
उर्वशी
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी,
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है ।
निरी बुद्धि की निर्मितियाँ निष्प्राण हुआ करती हैं;
चित्र और प्रतिमा, इनमें जो जीवन लहराता है,
वह सूझों से नहीं, पत्र-पाषाणों में आया है,
कलाकार के अंतर के हिलकोरे हुए रुधिर से ।
क्या विश्वास करे कोई कल्पनामयी इस धी का?
अमित वार देती यह छलना भेज तीर्थ-पथिकों को
उस मन्दिर की ओर, कहीं जिसका अस्तित्व नहीं है
पर,शोणित दौड़ता जिधर को,उस अभिप्रेत दिशा में,
निश्चय ही, कोई प्रसून यौवानोत्फुल्ल सौरभ से
विकल-व्यग्र मधुकर को रस-आमंत्रण भेज रहा है ।
या वासकसज्जा कोई फूलों के कुञ्ज-भवन में
पथ जोहती हुई, संकेतस्थल सूचित करने को
खड़ी समुत्सुक पद्म्राग्मानी-नूपुर बजा रही है ।
या कोई रूपसी उन्मना बैठी जाग रही है
प्रणय-सेज पर, क्षितिज-पास, विद्रुम की अरुणाई में
सिर की ओर चन्द्रमय मंगल-निद्राकलश सजा कर
श्रुतिपट पर उत्तप्त श्वास का स्पर्श और अधरों पर,
रसना की गुदगुदी, अदीपित निश के अन्धियाले में
रस-माती, भटकती ऊंगलियों का संचरण त्वचा पर;
इस निगूढ़ कूजन का आशय बुद्धि समझ सकती है?
उसे समझना रक्त, एक कम्पन जिसमें उठता है
किसी दूब की फुनगी से औचक छू जाने पर भी
बुद्धि बहुत करती बखान सागर-तट की सिकता का,
पर, तरंग-चुम्बित सैकत में कितनी कोमलता है,
इसे जानती केवल सिहरित त्वचा नग्न चरणों की ।
तुम निरुपते हो विराग जिसकी भीषिका सुनाकर,
मेरे लिये सत्य की वानी वही तप्त शोणित है ।
पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का;
यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमायेगी,
छली बुद्धि की भांति,जिसे सुख-दुख से भरे भुवन में
पाप दीखता वहाँ जहाँ सुन्दरता हुलस रही है,
और पुष्प-चय वहाँ जहाँ कंकाल, कुलिश, कांटे हैं ।
पुरुरवा
द्वन्द्व शूलते जिसे, सत्य ही, वह जन अभी मनुज है
देवी वह जिसके मन में कोई संघर्ष नहीं है ।
तब भी, मनुज जन्म से है लोकोत्तर, दिव्य तुम्हीं-सा,
मटमैली, खर, चटुल धार निर्मल, प्रशांत उद्गम की
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो ।
निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नहीं पाते हैं
पहुंच नहीं पाते उस अव्यय, एक, पूर्ण सविता तक,
खोए हुए अचेत माधवी किरणों के कलरव में
ये किरणें, ये फूल, किंतु, अप्रतिम सोपान नहीं हैं
उठना होगा बहुत दूर ऊपर इनके तारों पर,
स्यात, ऊर्ध्व उस अम्बर तक जिसकी ऊंचाई पर से
यह मृत्तिका-विहार दिव्य किरणों का हीन लगेगा ।
दाह मात्र ही नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,
नारी जब देखती पुरुष की इच्छा-भरे नयन को,
नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में,
मन में किसी कांत कवि को भी जन्म दिया करती है ।
नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की,
शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है ।
तन्मय हो सुनता मनुष्य जब स्वर कोकिल-कंठी का,
कवि हो रहता लीन रूप की उज्ज्वल झंकारों में ।
नर चाहता सदेह खींच रख लेना जिसे हृदय में
कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है ।
कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से
दोनों मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते है,
उस अनंत में जो अमूर्त धागों से बान्ध रहा है
सभी दृश्य सुषमाओं को अविगत, अदृश्य सत्ता से ।
देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की,
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक ।
यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में
जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है
और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमन्डल में
किसी दिव्य,अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है
जगता प्रेम प्रथम लोचन में, तब तरंग-निभ मन में,
प्रथम दीखती प्रिया एकदेही, फिर व्याप्त भुवन में,
पहले प्रेम स्पर्श होता है,तदनंतर चिंतन भी,
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी ।
मुझमें जिस रहस्य चिंतक को तुमने जगा दिया है
उड़ा चाहता है वह भावुक निरभ्र अम्बर में
घेर रहा जो तुम्हें चतुर्दिक अपनी स्निग्ध विभा से,
समा रहीं जिसमें अलक्ष्य आभा-उर्मियाँ तुम्हारी ।
वह अम्बर जिसके जीवन का पावस उतर चुका है,
चमक रही है धुली हुई जिसमें नीलिमा शरद की ।
वह निरभ्र आकाश, जहाँ, सत्य ही, चन्द्रमा सी तुम
तैर रही हो अपने ही शीतल प्रकाश-प्लावन से ,
किरण रूप में मुझे समाहित किये हुए अपने में ।
वह नभ, जहाँ गूढ़ छवि पर से अम्बर खिसक गया है,
परम कांति की आभा में सब विस्मित, चकित खड़े हैं,
अधर भूल कर तृषा और शोणित निज तीव्र क्षुधा को ।
वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है ।
ऊपर जो द्युतिमान, मनोमय जीवन झलक रहा है,
उसे प्राप्त हम कर सकते हैं तन के अतिक्रमण से
तन का अतिक्रमण, यानी इन दो सुरम्य नयनों के
वातायन से झांक देखना उस अदृश्य जगती को
जहाँ मृत्ति की सीमा सूनेपन में बिला रही है
तन का अतिक्रमण,यानी मांसल आवरण हटाकर
आंखों से देखना वस्तुओं के वास्तविक हृदय को
और श्रवण करना कानों से आहट उन भावों की
जो खुल कर बोलते नहीं, गोपन इंगित करते हैं
जो कुछ भी हम जान सके हैं यहाँ देह या मन से
वह स्थिर नहीं, सभी अटकल-अनुमान-सदृश लगता है
अत:, किसी भी भांति आप अपनी सीमा लंघित कर्
अंतरस्थ उस दूर देश में हम सबको जाना है
जहाँ न उठते प्रश्न, न कोई शंका ही जगती है ।
तुम अशेष सुन्दर हो, पर, हो कोर मात्र ही केवल
उस विराट छवि की,जो, घन के नीचे अभी दबी है
अतिक्रमण इसलिये कि इन जलदॉ का पटल हटाकर
देख सकूँ , मधुकांतिमान सारा सौन्दर्य तुम्हारा ।
मध्यांतर में देह और आत्मा के जो खाई है
अनुल्लन्घ्य वह नहीं, प्रभा के पुल से संयोजित है
अतिक्रमण इसलिये, पार कर इस सुवर्ण सेतु को
उद्भासित हो सकें भूतरोत्तर जग की आभा से
सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है
और चुनें गोपन भेदॉ को, जो समाधि-कानन में
कामद्रुम से, कुसुम सदृश, नीरव अशब्द झरते हैं
यह अति-क्रांति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का
देह-धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाना है
यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से
प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में
मौन ग्रहण यह उन अपार शोभाशाली बिम्बों का,
जो नारी से निकल पुरुष के मन में समा रहे हैं
यह अति-क्रांति वियोग नहीं, शोणित के तप्त ज्वलन का
परिवर्तन है स्निग्ध, शांत दीपक की सौम्य शिखा में
निन्दा नहीं, प्रशस्ति प्रेम की, छलना नहीं,समर्पण
त्याग नहीं, संचय; उपत्यकाओं के कुसुम-द्रुमों को
ले जाना है यह समूल नगपति के तुंग शिखर पर
वहाँ जहाँ कैलाश-प्रांत में शिव प्रत्येक पुरुष है
और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी ।
पर, कैसा दुसाध्य पंथ, कितना उड्डयन कठिन है
पहले तो मधु-सिक्त भ्रमर के पंख नहीं खुलते हैं
और खुले भी तो उड़ान आधी ही रह जाती है ;
नीचे उसे खींच लेता है आकर्षण मधुवन का
देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की
ममता रखती रोक उसे अति दूर देश जाने से
बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का।
उर्वशी
अतिक्रमण सुख की तरंग, तन के उद्वेलित मधु का?
तुम तो जगा रहे मुझ में फिर उसी शीत महिमा को
जिसे टांग कर पारिजात-द्रुम की अकम्प टहनी में
मैं चपलोष्ण मानवी-सी भू पर जीने आई हूँ
पर, मैं बाधक नहीं, जहाँ भी रहो, भूमि या नभ में
वक्षस्थल पर इसी भांति मेरा कपोल रहने दो
कसे रहो, बस इसी भांति, उर-पीड़क आलिंगन में
और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से
किंतु आह! यों नहीं तनिक तो शिथिल करो बाहों को;
निष्पेषित मत करो, यदपि, इस मधु-निष्पेषण में भी
मर्मांतक है शांति और आनन्द एक दारुण है
तुम पर्वत मैं लता, तुम्हारी बलवत्तर बाँहों में
विह्वल, रस-आकुलित, क्षाम मैं मूर्छित हो जाऊँगी
ना, यों नहीं; अरे, देखो तो उधर, बड़ा कौतुक है,
नगपति के उत्तुंग, समुज्ज्वल, हिम-भूषित शृगों पर
कौन नई उज्जवलता की तूली सी फेर रहा है?
कुछ वृक्षो के हरित-मौलि पर, कुछ पत्तों से छनकर
छँह देख नीचे मृगांक की किरणें लेट गई हैं
ओढ़े धूप-छम्ह की जाली ,अपनी ही निर्मिति की ।
लगता है, निष्कम्प, मौन सारे वन-वृक्ष खड़े हों
पीताम्बर, उष्णीष बान्धकर छायातप-कुट्टिम पर ।
दमक रही कर्पूर धूलि दिग्बन्धुओं के आनन पर;
रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है
यह अधित्यका दिन में तो कुछ इतनी बडी नहीं थी?
अब क्या हुआ कि यह अनंत सागर-समान लगती है?
कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की?
उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है
रसप्रसन्न मधुकांति चतुर्दिक ऐसे उमड़ रही है,
मानो, निखिल सृष्टि के प्राणों में कम्पन भरने को
एक साथ ही सभी बाण मनसिज ने छोड़ दिये हों ।
पुरुरवा
हाँ समस्त आकाश दीखता भरा शांत सुषमा से
चमक रहा चन्द्रमा शुद्ध, शीतल, निष्पाप हृदय-सा
विस्मृतियाँ निस्तल समाधि से बाहर निकल रही हैं
लगता है, चन्द्रिका आज सपने में घूम रही है ।
और गगन पर जो असंख्य आग्नेय जीव बैठे हैं
लगते हैं धुन्धले अरण्य में हीरों के कूपों-से ।
चन्द्रभूति-निर्मित हिमकण ये चमक रहे शाद्वल में?
या नभ के रन्ध्रों में सित पारावत बैठ गये हैं?
कल्प्द्रुम के कुसुम, या कि ये परियों की आंखें हैं?
उर्वशी
कल्पद्रुम के कुसुम नहीं ये, न तो नयन परियों के,
ये जो दीख रहे उजले-उजले से नील गगन में,
दीप्तिमान, सित, शुभ्र, श्मश्रुमय देवों के आनन हैं ।
शमित वह्नि ये शीत-प्राण पीते सौन्दर्य नयन से,
घ्राण मात्र लेते, न कुसुम का अंग कभी छूते हैं
पर, देखो तो, दिखा-दिखा दर्पण शशांक यह कैसे
सब के मन का भेद गुप्तचर-सा पढ़्ता जाता है,
(भेद शैल-द्रुम का, निकुंज में छिपी निर्झरी का भी.)
और सभी कैसे प्रसन्न अभ्यंतर खोल रहे हैं,
मानो चन्द्र-रूप धर प्राणों का पाहुन आया हो ।
ऐसी क्या मोहिनी चन्द्रमा के कर में होती है?
पुरुरवा
ऋक्षकल्प झिलमिल भावों का, चन्द्रलिंग स्वप्नों का
दिवस शत्रु, एकांत यामिनी धात्री है, माता है ।
आती जब शर्वरी, पोंछती नहीं विश्व के सिर से
केवल तपन-चिन्ह, केवल लांछन सफेद किरणों के;
श्रमहारी, निर्मोघ, शांतिमय अपने तिमिरांचल में
कोलाहल, कर्कश निनाद को भी समेट लेती है
तिमिर शांति का व्यूह, तिमिर अंतर्मन की आभा है,
दिन में अंतरस्थ भावों के बीज बिखर जाते हैं;
पर हम चुनकर उन्हें समंजस करते पुन: निशा में
जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है ।
जो सपने दिन के प्रकाश में धूमिल हो जाते हैं
या अदृश्य अपने सोदर, संकोचशील उडुओं-से,
वही रात आने पर कैसे हमें घेर लेते हैं
ज्योतिर्मय, जाज्वल्यमान, आलोक-शिखाएँ बनकर!
निशा योग-जागृति का क्षण है उदग्र प्रणय की
ऐकायनिक समाधि; काल के इसी गरुत के नीचे
भूमा के रस-पथिक समय का अतिक्रमण करते हैं
योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में ।
समतामयी उदार शीतलांचल जब फैलाती है,
जाते भूल नृपति मुकुटॉ को, बन्दी निज कड़ियों को;
जग भर की चेतना एक होकर अशब्द बहती है
किसी अनिर्वचनीय, सुखद माया के महावरण में ।
साम्राज्ञी विभ्राट, कभी जाते इसको देखा है
समारोह-प्रांगण में पहने हुए दुकूल तिमिर का
नक्षत्रों से खचित, कूल-कीलित झालरें विभा की
गूँथे हुए चिकुर में सुरभित दाम श्वेत फूलों के?
और सुना है वह अस्फुट मर्मर कौशेय वसन का
जो उठता मणिमय अलिन्द या नभ के प्राचीरों पर
मुक्ता-भर,लम्बित दुकूल के मन्द-मन्द घर्षण से,
राज्ञी जब गर्वित गति से ज्योतिर्विहार करती है?
निशा शांति का क्रोड़; किंतु, यह सुरभित स्फटिक-भवन में
तब भी, कोई गीत ज्योति से मिला हुआ चलता है
यह क्या है? कौमुदी या कि तारे गुन-गुन गाते है?
दृश्य श्रव्य बनकर अथवा श्रुतियों में समा रहा है?
बजती है रागिनी सुप्त सुन्दरता की साँसॉ की
या अपूर्व कविता चिर-विस्मृत किसी पुरातन कवि की
गूँज रही निस्तब्ध निशा में निकल काल-गह्वर से?
यह अगाध सुषमा, अनंतता की प्रशांत धारा में,
लगता है, निश्चेत कहीं हम बहे चले जाते हैं ।
उर्वशी
अतल, अनादि, अनंत, पूर्ण, बृंहित, अपार अम्बर में
सीमा खींचे कहाँ? निमिष, पल, दिवस, मास, संवत्सर
महाकाश में टंगे काल के लक्तक-से लगते हैं ।
प्रिय! उस पत्रक को समेट लो जिसमें समय सनातन
क्षण, मुहुर्त, संवत, शताब्दि की बून्दों में अंकित है ।
बहने दो निश्चेत शांति की इस अकूल धारा में,
देश-काल से परे, छूट कर अपने भी हाथों से ।
किस समाधि का शिखर चेतना जिस पर ठहर गई है?
उड़ता हुआ विशिख अम्बर में स्थिर-समान लगता है ।
पुरुरवा
रुको समय-सरिते! पल! अनुपल! काल-शकल! घटिकाओ!
इस प्रकार, आतुर उड़ान भर कहाँ तुम्हें जाना है?
कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का,
काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है
कहीं कुंडली मार कर बैठ जाओ नक्षत्र-निलय में
मत ले जाओ खींच निशा को आज सूर्य-वेदी पर ।
रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की;
एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का,
एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूंघ लेने दो ।
मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है;
जनमा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में
बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है ।
जिस प्रकार नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की,
और हिमालय की गाथा विदित महासागर को,
वर्तमान, त्यों ही, अपने गृह में जो कुछ करता है,
भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं ।
सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान खड़े हैं दिगायाम में जैसे
एक साथ; त्यों काल-देवता के महान प्रांगण में
भूत, भविष्यत, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं
बातें करते हुए परस्पर गिरा-मुक्त भाषा में ।
कहाँ देश, हम नहीं व्योम में जिसके गूँज रहे हैं
कौन कल्प, हम नहीं तैरते हैं जिसके सागर में?
महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है,
बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर ।
उर्वशी
हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से
भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनों के एकार्णव में
तैर रहे सम्पृक्त सभी वीचियों, कणों, अणुओं से ।
समा रही धड़कनें उरों की अप्रतिहत त्रिभुवन में,
काल-रन्ध्र भर रहा हमारी सांसॉ के सौरभ से ।
अंतर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणों का!
सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?
पुरुरवा
महाशून्य के अंतर्गृह में, उस अद्वैत-भवन में
जहाँ पहुंच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है ।
इस निरभ्र नीलांतरिक्ष की निर्झर मंजुषा में
सर्ग-प्रलय के पुराव्र्त्त जिसमें समग्र संचित हैं ।
दूरागत इस सतत-संचरण-मय समीर के कर में
कथा आदि की जिसे अंत की श्रुति तक ले जाना है
इस प्रदीप्त निश के अंचल में, जो आप्रलंय निरंतर,
इसी भांति, सुनती जायेगी कूजन गूढ़ प्रणय का ।
उस अदृश्य के पद पर, जिसकी दयासिक्त, मृदु स्मिति में,
हम दोनों घूमते और क्रीड़ा विहार करते हैं ।
जिसकी इच्छा का प्रसार भूतल, पाताल, गगन है,
दौड़ रहे नभ में अनंत कन्दुक जिसकी लीला के
अगणित सविता-सोम, अपरिमित ग्रह, उडु-मंडल बनकर;
नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है
और बेधता पुरुष-कांति बन हृदय-पुष्प नारी का ।
निधि में जल, वन में हरीतिमा जिसका घनावरण है,
रक्त-मांस-विग्रह भंगुर ये उसी विभा के पट हैं ।
प्रणय-श्रृंग की निश्चेतनता में अधीर बाँहों के
आलिंगन में देह नहीं श्लथ, यही विभा बँधती है ।
और चूमते हम अचेत हो जब असंज्ञ अधरों को,
वह चुम्बन अदृश्य के चरणों पर भी चढ़ जाता है ।
देह मृत्ति, दैहिक प्रकाश की किरणें मृत्ति नहीं हैं,
अधर नष्ट होते, मिटती झंकार नहीं चुम्बन की;
यह अरूप आभा-तरंग अर्पित उसके चरणों पर,
निराकार जो जाग रहा है सारे आकारों में ।
उर्वशी
रोम-रोम में वृक्ष, तरंगित, फेनिल हरियाली पर
चढ़ी हुई आकाश-ओर मैं कहाँ उड़ी जाती हूँ?
पुरुरवा
देह डूबने चली अतल मन के अकूल सागर में
किरणें फेंक अरूप रूप को ऊपर खींच रहा है ।
उर्वशी
करते नहीं स्पर्श क्यों पगतल मृत्ति और प्रस्तर का?
सघन, उष्ण वह वायु कहाँ है? हम इस समय कहाँ हैं?
पुरुरवा
छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर
चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुंच रहे हैं
उर्वशी
फूलों-सा सम्पूर्ण भुवन सिर पर इस तरह, उठाए
यह पर्वत का श्रृंग मुदित हमको क्यों हेर रहा है?
पुरुरवा
अयुत युगों से ये प्रसून यों ही खिलते आए हैं,
नित्य जोहते पंथ हमारे इसी महान मिलन का ।
जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में,
नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर
तब प्रहर्ष की अति से यों ही प्रकृति काँप उठती है,
और फूल यों ही प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं ।
उर्वशी
जला जा रहा अर्थ सत्य का सपनों की ज्वाला में,
निराकार में आकारों की पृथ्वी डूब रही है ।
यह कैसी माधुरी? कौन स्वर लय में गूंज रहा है
त्वचा-जाल पर, रक्त-शिराओं में, अकूल अंतर में?
ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ री बेबसी गिरा की!
दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को?
पुरुरवा
शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है;
प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं
कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी?
भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणों की ।
उर्वशी
कौन पुरुष तुम?
पुरुरवा
जो अनेक कल्पों के अंधियाले में
तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को
जन्मों के अनेक कुंजों, वीथियों, प्रार्थनाओं में,
पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघों पर
एक पुष्प में अमित युगों के स्वप्नों की आभा-सी
उर्वशी
और कौन मैं?
पुरुरवा
ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता हूँ
इतना ही है ज्ञात, तुम्हारे आते ही अंतर का
द्वार स्वयं खुल गया और प्राणों का निभृत निकेतन्
अकस्मात, भर गया स्वरित रंगों के कोलाहल से ।
जब से तुम आई पृथ्वी कुछ अधिक मुदित लगती है;
शैल समझते हैं, उनके प्राणों में जो धारा है,
बहती है पहले से वह,कुछ अधिक रसवती होकर
जब से तुम आई धरती पर फूल अधिक खिलते हैं,
दौड़ रही कुछ नई दीप्ति सी शीतल हरियाली में ।
सब हैं सुखी, एक नक्षत्रों को ऐसा लगता है
जैसे कोई वस्तु हाथ से उनके निकल गई हो ।
उर्वशी
और मिले जब प्रथम-प्रथम तुम, विद्युत चमक उठी थी
इन्द्रधनुष बनकर भविष्य के नीले अन्धियाले पर
तुम मेरे प्राणेश, ज्ञान-गुरु, सखा, मित्र, सह्चर हो;
जहाँ कहीं भी प्रणय सुप्त था शोणित के कण-कण में
तुमने उसको छेड़ मुझे मूर्छा से जगा दिया है ।
प्राणों में शीतल शुचिता सद्य:प्रस्फुटित कमल की;
लगता है ऋजु प्रभा हृदय में पुन: लौट आई है
भरी चुम्बनों की फुहार, कम्पित प्रमोद की अति से
जाग उठी हूँ मैं निद्रा से जगी हुई लतिका-सी
प्रथम-प्रथम ही सुना नाद उद्गम पर बजते जल का,
प्रथम-प्रथम ही आदि उषा की द्युति में भीग रही हूँ ।
तन की शिरा-शिरा में जो रागिनियाँ बन्द पड़ी थी
कौन तुम्हारे बिना उन्हें उन्मोचित कर सकता था?
कौन तुम्हारे बिना दिलाता यह विश्वास हृदय को,
अंतरिक्ष यह स्वयं भूमि है किसी अन्य जगती की,
सम्मुख जो झूमते वृक्ष,वे वृक्ष नहीं बादल हैं?
यह ज्योतिर्मय रूप? प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से
काट पुरुष-प्रतिमा विराट निज मन के आकारों की,
महाप्रान से भर उसको, फिर भू पर गिरा दिया है;
स्यात्, स्वर्ग की सुन्दरियों, परियों को ललचाने को,
स्यात्, दिखाने को, धरती जब महावीर जनती है,
असुरों से वह बली, सुरों से भी मनोज्ञ् होता है ।
उफ री यह माधुरी! और ये अधर विकच फूलों-से!
ये न्वीन पाटल के दल आनन पर जब फिरते हैं,
रोम-कूप, जानें, भर जाते किन पीयुष कणों से!
और सिमटते ही कठोर बाँहों के आलिंगन में,
चटुल एक-पर-एक उष्ण उर्मियाँ तुम्हारे तन की
मुझमें कर संक्रमण प्राण उन्मत्त बना देती हैं
कुसुमायित पर्वत-समान तब लगी तुम्हारे तन से
मैं पुलकित-विह्वल, प्रसन्न-मूर्च्छित होने लगती हूँ
कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
पुरुरवा
हाय, तृषा फिर वही तरंगों में गाहन करने की!
वही लोभ चेतना-सिन्धु के अपर पार जाने का
झम्प मार तन की प्रतप्त, उफनाती हुई लहर में?
ठहर सकेगा कभी नहीं क्या प्रणय शून्य अम्बर पर?
विविध सुरों में छेड़ तुम्हारी तंत्री के तारों को,
बिठा-बिठा कर विविध भांति रंगों में, रेखाओं में,
कभी उष्ण उर-कम्प, कभी मानस के शीत मुकुर में,
बहुत पढ़ा मैने अनेक लोकों में तुम्हें जगाकर ।
पर, इन सब से खुलीं पूर्ण तुम? या जो देख रहा हूँ,
मायाविनि! वह बन्द मुकुल है, महासिन्धु का तट है?
कहाँ उच्च वह शिखर, काल का जिस पर अभी विलय था?
और कहाँ यह तृषा ग्राम्य नीचे आकर बहने की
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
भ्रांत स्वयं या जान-बूझकर मुझको भ्रमा रही हो?
DISCUSSION
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