तृतीय अंक
- - तृतीय अंक आरम्भ - -
पुरुरवः ! पुनरस्तं परेहि,
दुरापना वात इवाहमस्मि
-ऋग्वेद
हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ
मैं वायु के सामान दुष्प्राप्य हूँ
(गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी)
पुरुरवा
जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;
जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आई है ।
जब से हम-तुम मिले, रूप के अगम, फुल कानन में
अनिमिष मेरी दृष्टि किसी विस्मय में ड़ूब गयी है,
अर्थ नहीं सूझता मुझे अपनी ही विकल गिरा का;
शब्दों से बनाती हैं जो मूर्त्तियां, तुम्हारे दृग से ।
उठने वाले क्षीर-ज्वार में गल कर खो जाती हैं ।
खड़ा सिहरता रहता मैं आनंद-विकल उस तरु-सा
जिसकी डालों पर प्रसन्न गिलहरियाँ किलक रही हों,
या पत्तों में छिपी हुई कोयल कूजन करती हो ।
उर्वशी
जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को,
लय होता जा रहा मरुदगति से अतीत-गह्वर में ।
किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी,
यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था ।
उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था,
कल्प बिताये बिना न हटाती थीं वे काल-निशाएँ
कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को ।
निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में
सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का ।
मिले, अंत में, तब, जब ललना की मर्याद गंवाकर
स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई ।
पुरुरवा
चिर कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का,
इसे छोड़कर और दूसरा कौन पथ संभव था ?
उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके
और छोड़कर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में
लौटा जब मैं राजभवन को, लगा, देह ही केवल
रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गयी है;
छूट गये हैं प्राण उन्हीं उज्जवल मेघों के वन में,
जहां मिली थी तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी ।
कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं,
अब उर्वशी बिना यह जीवन दूबर हुआ जाता है,
बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भू-तल पर आने दें
पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख मांगते हैं क्या"?
और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ?
मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से ,
उसका ह्रदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ?
बाहर सांकल नहीं जिसे तू खोल ह्रदय पा जाए,
इस मंदिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है ।
"और कभी ये भी सोचा है, जिस सुगंध से छककर
विकल वायु बह रही मत्त होकर त्रिकाल-त्रिभुवन की,
उस दिगंत-व्यापिनी गंध की अव्यय, अमर शिखा को
मर्त्य प्राण की किस निकुंज-वीथी में बाँध धरेगा?"
इसीलिए, असहाय तड़पता बैठा रहा महल में
लेकर यह विश्वास, प्रीती यदि मेरी मृषा नहीं है,
मेरे मन का दाह व्योम के नीचे नहीं रुकेगा,
जलद-पुंज को भेद, पहुँचकर पारिजात के वन में
वह अवश्य ही कर देगा संतप्त तुम्हारे मन को ।
और प्रीती जागने पर तुम वैकुंठ-लोक को तजकर
किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी ।
उर्वशी
सो तो मैं आ गयी, किन्तु, यह वैसा ही आना है,
अयस्कांत ले खींच अयस को जैसे निज बाहों में ।
पर, इस आने में किंचित भी स्वाद कहाँ उस सुख का,
जो सुख मिलता उन मनस्विनी वामलोचनाओं को
जिन्हें प्रेम से उद्वेलित विक्रमा पुरुष बलशाली
रण से लाते जीत या कि बल-सहित हरण करते हैं ।
नदियाँ आती स्वयं, ध्यान सागर, पर, कब देता है?
बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को
चिर-अतृप्त, उद्भ्रांत महोदधि लहराता रहता है ।
वही धनी जो मान्मयी प्रणयी के बाहु-वलय में
खिंची नहीं,विक्रम-तरंग पर चढ़ी हुई आती है ।
हरण किया क्यों नहीं, मांग लाने में यदि अपयश था?
पुरुरवा
अयशमूल दोनों विकर्म हैं,हरण हो कि भिक्षाटन
और हरण करता मैं किसका ? उस सौन्दर्य सुधा का
जो देवों की शान्ति, इन्द्र के दृग की शीतलता थी?
नहीं बढाया कभी हाथ पर के स्वाधीन मुकुट पर,
न तो किया संघर्ष कभी पर की वसुधा हरने को ।
तब भी प्रतिष्ठानपुर वंदित है सहस्र मुकुटों से,
और राज्य-सीमा दिन-दिन विस्तृत होती जाती है ।
इसी भांति, प्रत्येक सुयश, सुख, विजय, सिद्धि जीवन की
अनायास, स्वयमेव प्राप्त मुझको होती आई है ।
यह सब उनकी कृपा, सृष्टि जिनकी निगूढ़ रचना है।
झुके हुए हम धनुष मात्र हैं, तनी हुई ज्या पर से
किसी और की इच्छाओं के बाण चला करते हैं ।
मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है
कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन-पुलक जगा कर;
कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से
मन का दीपक बुझा, बनाकर तिमिराच्छन्न ह्रदय को ।
किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?
फिर होता संघर्ष तिमिर में दीपक फिर जलाते हैं ।
रंगों की आकुल तरंग जब हमको कस लेती है,
हम केवल डूबते नहीं ऊपर भी उतराते हैं
पुण्डरीक के सदृश मृत्ति-जल ही जिसका जीवन है
पर, तब भी रहता अलिप्त जो सलिल और कर्दम से ।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है
उर्वशी
यह मैं क्या सुन रही ? देवताओं के जग से चल कर
फिर मैं क्या फंस गई किसी सुर के ही बाहू-वलय में ?
अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक ह्रदय तुम्हारा
तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करुँगी?
और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को
मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?
वह विद्युन्मय स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की
नींद टूट जाती,रोमों में दीपक बल उठते हैं ?
वह आलिंगन अन्धकार है, जिसमें बंध जाने पर
हम प्रकाश के महासिंधु में उतरने लगते हैं?
और कहोगे तिमिर-शूल उस चुम्बन को भी जिससे
जड़ता की ग्रंथियां निखिल तन-मन की खुल जाती हैं?
यह भी कैसी द्विधा? देवता गंधों के घेरे से
निकल नहीं मधुपूर्ण पुष्प का चुम्बन ले सकते हैं ।
और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर
ललचाता है दूर गंध के नभ में उड़ जाने को
अनासक्ति तुम कहो, किन्तु, उस द्विधा-ग्रस्त मानव की
झांकी तुम में देख मुझे, जाने क्यों, भय लगता है
तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ आलिंगन में,
मन से, किन्तु, विषण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में
मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?
कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ
आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो
क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोड़न में
और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं
अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी
और अभी यह भाव, गोद में पड़ी हुई मैं जैसे
युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ ।
शमित-वह्नि सुर की शीतलता तो अज्ञात नहीं है;
पर, ज्वलंत नर पर किसका यह अंकुश लटक रहा है
छककर देता उसे नहीं पीने जो रस जीवन का,
न तो देवता-सदृश गंध-नभ में जीने देता है ।
पुरुरवा
कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ ।
पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ ।
आग है कोई, नहीं जो शांत होती;
और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है ।
रूप का रसमय निमंत्रण
या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि
मुझको शान्ति से जीने न देती ।
हर घड़ी कहती, उठो,
इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो,
पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी ।
अब नहीं आगे कभी उद्भ्रांत हूँगी ।
किन्तु रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को,
घूँट या दो घूँट पीते ही
न जानें, किस अतल से नाद यह आता,
"अभी तक भी न समझा ?
दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है ।
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है."
टूट गिरती हैं उमंगें,
बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है ।
अप्रतिभ मैं फिर उसी दुर्गम जलधि में ड़ूब जाता,
फिर वही उद्विग्न चिंतन,
फिर वही पृच्छा चिरंतन ,
"रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"
रक्त की उत्तम लहरों की परिधि के पार
कोई सत्य हो तो,
चाहता हूँ, भेद उसका जान लूँ ।
पथ हो सौन्दर्य की आराधना का व्योम में यदि
शून्य की उस रेख को पहचान लूँ ।
पर,जहां तक भी उड़ूँ, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है
मृत्ति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर? शून्य है सब
और नीचे भी नहीं संतोष,
मिट्टी के ह्रदय से
दूर होता ही कभी अम्बर नहीं है ।
इस व्यथा को झेलता
आकाश की निस्सीमता में
घूमता फिरता विकल, विभ्रांत
पर, कुछ भी न पाता ।
प्रश्न को कढ़ता,
गगन की शून्यता में गूंजकर सब ओर
मेरे ही श्रवण में लौट आता.
और इतने में मही का गान फिर पड़ता सुनाई,
"हम वही जग हैं, जहां पर फूल खिलते हैं ।
दूब है शय्या हमारे देवता की,
पुष्प के वे कुञ्ज मंदिर हैं
जहां शीतल, हरित, एकांत मंडप में प्रकृति के
कंटकित युवती-युवक स्वच्छंद मिलते हैं."
"इन कपोलों की ललाई देखते हो?
और अधरों की हँसी यह कुंद-सी, जूही-कली-सी ?
गौर चम्पक-यष्टि-सी यह देह श्लथ पुष्पभरण से,
स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?"
यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो ।
रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर.
ओ गगनचारी! यहाँ मधुमास छाया है ।
भूमि पर उतारो,
कमल, कर्पूर, कुंकुम से, कुटज से
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।"
गीत आता है मही से?
या कि मेरे ही रुधिर का राग
यह उठता गगन में ?
बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ ह्रदय में;
याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन
याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन;
स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,
याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख ।
कामनाएं प्राण को हिलकोरती हैं ।
चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में ।
फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती ।
मैं न रुक पाता कहीं,
फिर लौट आता हूँ पिपासित
शून्य से साकार सुषमा के भुवन में
युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा
जो कहीं रुकता नहीं,
बेचैन जा गिरता अकुंठित
तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में
चूमता हूँ दूब को, जल को, प्रसूनों, पल्लवों को,
वल्लरी को बांह भर उर से लगाता हूँ;
बालकों-सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह को छिपाकर
नींद की निस्तब्धता में डूब जाता हूँ ।
नींद जल का स्रोत है, छाया सघन है,
नींद श्यामल मेघ है, शीतल पवन है ।
किन्तु, जगकर देखता हूँ,
कामनाएं वर्तिका सी बल रही हैं
जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं
प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं ।
रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पड़ा हो,
नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पड़ा हो ।
फिर क्षुधित कोई अतिथि आवाज देता
फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को,
कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है,
रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रुधिर में,
चेतना रस की लहर में डूब जाती है
और तब सहसा
न जानें , ध्यान खो जाता कहाँ पर ।
सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान,
तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो
आरती की ज्योति को भुज में समेटे
मैं तुम्हारी ओर अपलक देखता एकांत मन से
रूप के उद्गम अगम का भेद गुनता हूँ ।
सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है,
सींचता हूँ प्राण को इस गंध की भीनी लहर से,
और अंगों की विभा की वीचियों से एक होकर
मैं तुम्हारे रंग का संगीत सुनता हूँ
और फिर यह सोचने लगता, कहाँ ,किस लोक में हूँ ?
कौन है यह वन सघन हरियालियों का,
झूमते फूलों, लचकती डालियों को?
कौन है यह देश जिसकी स्वामिनी मुझको निरंतर
वारुणी की धार से नहला रही है ?
कौन है यह जग, समेटे अंक में ज्वालामुखी को
चांदनी चुमकार कर बहला रही है ?
कौमुदी के इस सुनहरे जाल का बल तोलता हूँ,
एक पल उड्डीन होने के लिए पर खोलता हूँ।
पर, प्रभंजन मत्त है इस भांति रस-आमोद में,
उड़ न सकता, लौट गिरता है कुसुम की गोद में ।
टूटता तोड़े नहीं यह किसलयों का दाम,
फूलों की लड़ी जो बांध गई, खुलती नहीं है ।
कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,
खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बांह मेरी.
सिन्धु-सा उद्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है?
गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार,
उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएं
सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल,
मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है ।
सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
कांपता है कुण्डली मारे समय का व्याल,
मेरी बांह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है ।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं ।
अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ
पर, न जानें, बात क्या है !
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता ।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से ।
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ ।
कौन कहता है,
तुम्हें मैं छोड़कर आकाश में विचरण करूंगा ?
बाहुओं के इस वलय में गात्र की बंदी नहीं है,
वक्ष के इस तल्प पर सोती न केवल देह ,
मेरे व्यग्र, व्याकुल प्राण भी विश्राम पाते हैं ।
मर्त्य नर को देवता कहना मृषा है,
देवता शीतल, मनुज अंगार है ।
देवताओं की नदी में ताप की लहरें न उठतीं,
किन्तु, नर के रक्त में ज्वालामुखी हुंकारता है,
घूर्नियाँ चिंगारियों की नाचती हैं,
नाचते उड़कर दहन के खंड पत्तों-से हवा में,
मानवों का मन गले-पिघले अनल की धार है ।
चाहिए देवत्व,
पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?
कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ?
आग के बदले मुझे संतोष ,बोलो कौन देगा?
फिर दिशाए मौन, फिर उत्तर नहीं है
प्राण की चिर-संगिनी यह वह्नि,
इसको साथ लेकर
भूमि से आकाश तक चलते रहो ।
मर्त्य नर का भाग्य !
जब तक प्रेम की धारा न मिलती,
आप अपनी आग में जलते रहो ।
एक ही आशा, मरुस्थल की तपन में
ओ सजल कादम्बिनी! सर पर तुम्हारी छांह है ।
एक ही सुख है, उरस्थल से लगा हूँ,
ग्रीव के नीचे तुम्हारी बांह है ।
इन प्रफुल्लित प्राण-पुष्पों में मुझे शाश्वत शरण दो,
गंध के इस लोक से बाहर न जाना चाहता हूँ ।
मैं तुम्हारे रक्त के कान में समाकर
प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ ।
DISCUSSION
blog comments powered by Disqus