क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो। तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे,...
यह कैसी चुप है कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है कोई चुपके से आया है -- चुप से टूटा हुआ -- चुप का टुकड़ा -- किरण से टूटा हुआ किरण का कोई टुकड़ा यह एक कोई "'वह'' है जो बहुत बार बुलाने पर भी नही आया था | और अब मैं अकेली नहीं मैं आप अपने संग खड़ी हूँ शीशे की सुराही में नज़रों की शराब भरी है -- और हम दोनों जाम पी रहे हैं वह टोस्ट दे रहा उन लफ्जों के जो सिर्फ़ छाती में उगते हैं | यह अर्थों का जश्न है --- ...
ये भगवान के डाकिये हैं, जो एक महादेश से दूसरे महादेश को जाते हैं। हम तो समझ नहीं पाते हैं, मगर उनकी लायी चिट्ठियाँ पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं। हम तो केवल यह आँकते हैं कि एक देश की धरती दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है। और वह सौरभ हवा में तैरती हुए पक्षियों की पाँखों पर तिरता है। और एक देश का भाप दूसरे देश का पानी बनकर गिरता है।
- - इन उत्ताल तरंगों पर सह झंझा के आघात, जलना ही रहस्य है बुझना -है नैसर्गिक बात ... - - किन उपकरणों का दीपक, किसका जलता है तेल? किसकि वर्त्ति, कौन करता इसका ज्वाला से मेल? शून्य काल के पुलिनों पर- जाकर चुपके से मौन, इसे बहा जाता लहरों में वह रहस्यमय कौन? कुहरे सा धुँधला भविष्य है, है अतीत तम घोर ; कौन बता देगा जाता यह किस असीम की ओर? पावस की निशि में जुगनू का- ज्यों आलोक-प्रसार। इस...
बैठ लें कुछ देर, आओ,एक पथ के पथिक-से प्रिय, अंत और अनन्त के, तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए भाषा मूकता की आड़ में, मन सरलता की बाढ़ में, जल-बिन्दु सा बह जाए। सरल अति स्वच्छ्न्द जीवन, प्रात के लघुपात से, उत्थान-पतनाघात से रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।
आज सूरज ने कुछ घबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली बादल की एक खिड़की बंद की और अंधेरे की सीढियां उतर गया…. आसमान की भवों पर जाने क्यों पसीना आ गया सितारों के बटन खोल कर उसने चांद का कुर्ता उतार दिया…. मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं तुम्हारी याद इस तरह आयी जैसे गीली लकड़ी में से गहरा और काला धूंआ उठता है…. साथ हजारों ख्याल आये जैसे कोई सूखी लकड़ी सुर्ख आग की आहें भरे, दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं वर्ष कोयले की...
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की उजालों की परियाँ नहाने लगीं नदी गुनगुनाई ख़यालात की मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की सितारों को शायद ख़बर ही नहीं मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का बरसती हुई रात बरसात की
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत[1]का भरम रख तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ पहले से मरासिम[2] न सही, फिर भी कभी तो रस्मों-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया[3] से भी महरूम ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें...
राजे ने अपनी रखवाली की; किला बनाकर रहा; बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं । चापलूस कितने सामन्त आए । मतलब की लकड़ी पकड़े हुए । कितने ब्राह्मण आए पोथियों में जनता को बाँधे हुए । कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए, लेखकों ने लेख लिखे, ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे, नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे रंगमंच पर खेले । जनता पर जादू चला राजे के समाज का । लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं । धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...