गले से गीत टूट गए चर्खे का धागा टूट गया और सखियां-जो अभी अभी यहां थीं जाने कहां कहां गईं... हीर के मांझी ने-वह नौका डुबो दी जो दरिया में बहती थी हर पीपल से टहनियां टूट गईं जहां झूलों की आवाज़ आती थी... वह बांसुरी जाने कहां गई जो मुहब्बत का गीत गाती थी और रांझे के भाई बंधु बांसुरी बजाना भूल गए... ज़मीन पर लहू बहने लगा- इतना-कि कब्रें चूने लगीं और मुहब्बत की शहज़ादियां मज़ारों में रोने लगीं......
भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं वह सहसा दिख जाता है मानव अंगारे-सा--भगवान-सा अकेला। और हमारे सारे लोकाचार राख की युगों-युगों की परतें हैं।
मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे...
नहीं जानती जो अपने को खिली हुई-- विश्व-विभव से मिली हुई,-- नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,-- नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को, वे किसान की नयी बहू की आँखें ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें; वे केवल निर्जन के दिशाकाश की, प्रियतम के प्राणों के पास-हास की, भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ के कर से-- बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।
मैं तुझे फ़िर मिलूंगी कहाँ किस तरह पता नहीं शायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बन तेरे केनवास पर उतरुंगी या तेरे केनवास पर एक रहस्यमयी लकीर बन खामोश तुझे देखती रहूंगी या फ़िर सूरज की लौ बन कर तेरे रंगों में घुलती रहूंगी या रंगों की बाहों में बैठ कर तेरे केनवास से लिपट जाउंगी पता नहीं कहाँ किस तरह पर तुझे जरुर मिलूंगी या फ़िर एक चश्मा बनी जैसे झरने से पानी उड़ता है मैं पानी की बूंदें तेरे बदन पर मलूंगी ...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...