कविताएँ

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ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया कि दिल से शोर उठा, हाए! बेक़रार किया तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार...

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तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।  सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा । वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,  हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।  तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में,  वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा ।  वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की,  मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा ।  हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में,  उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा ।

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बहोत रही बाबुल घर दुल्हन

  बहोत रही बाबुल घर दुल्हन, चल तोरे पी ने बुलाई। बहोत खेल खेली सखियन से, अन्त करी लरिकाई। बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई। चार कहार मिल डोलिया उठाई, संग परोहत और भाई। चले ही बनेगी होत कहाँ है, नैनन नीर बहाई। अन्त बिदा हो चलि है दुल्हिन, काहू कि कछु न बने आई। मौज-खुसी सब देखत रह गए, मात पिता और भाई। मोरी कौन संग लगन धराई, धन-धन तेरि है खुदाई। बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्ही, नेह की मिसरी खिलाई। एक के नाम कर दीनी सजनी, पर घर की...

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शक्ल जब बस गई आँखों में

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा   आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा   तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा   ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा   क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा

फिर क्या होगा उसके बाद

फिर क्या होगा उसके बाद? उत्सुक होकर शिशु ने पूछा, "माँ, क्या होगा उसके बाद?"   रवि से उज्जवल, शशि से सुंदर, नव-किसलय दल से कोमलतर ।  वधू तुम्हारी घर आएगी उस विवाह-उत्सव के बाद ।।'   पलभर मुख पर स्मित-रेखा, खेल गई, फिर माँ ने देखा । उत्सुक हो कह उठा, किन्तु वह फिर क्या होगा उसके बाद?'   फिर नभ के नक्षत्र मनोहर  स्वर्ग-लोक से उतर-उतर कर । तेरे शिशु बनने को मेरे  घर लाएँगे उसके बाद ।।'   मेरे नए...

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समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का  'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का  गर शैख़-ओ-बहरमन[1] सुनें अफ़साना किसी का  माबद[2] न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना[3] किसी का  अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत रौशन भी करो जाके सियहख़ाना[4] किसी का  अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़[5] नींद के साहब  ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का  इशरत[6] जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए  हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को ...

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चल खुसरो घर आपने

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।। खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। खीर पकायी जतन से, चरखा दिया जला। आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।। गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।। खुसरो मौला के रुठते, पीर के सरने जाय। कहे खुसरो पीर के रुठते, मौला नहिं होत सहाय।।

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रैनी चढ़ी रसूल की

रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ। जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।। खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग। जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।। चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय। ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।। खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय। पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।। खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश। कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।। उजवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है पर...

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वंदना

वंदिनी तव वंदना में  कौन सा मैं गीत गाऊँ?   स्वर उठे मेरा गगन पर,  बने गुंजित ध्वनित मन पर,  कोटि कण्ठों में तुम्हारी  वेदना कैसे बजाऊँ?   फिर, न कसकें क्रूर कड़ियाँ,  बनें शीतल जलन-घड़ियाँ,  प्राण का चन्दन तुम्हारे  किस चरण तल पर लगाऊँ?   धूलि लुiण्ठत हो न अलकें,  खिलें पा नवज्योति पलकें,  दुर्दिनों में भाग्य की  मधु चंद्रिका कैसे खिलाऊँ?   तुम उठो माँ! पा नवल बल,  दीप्त हो फिर भाल उज्ज्वल!  इस निबिड़ नीरव निशा में  किस उषा...

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हंगामा है क्यूँ बरपा

  हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है   ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़[1] की ये बातें हैं इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है   उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना मक़सूद[2] है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है   वां[3] दिल में कि दो सदमे,यां[4] जी में कि सब सह लो उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है   हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही[5] से हर साँस ये कहती है,...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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