न तुम मेरे न दिल मेरा न जान-ए-ना-तवाँ मेरी तसव्वुर में भी आ सकतीं नहीं मजबूरियाँ मेरी न तुम आए न चैन आया न मौत आई शब-ए-व'अदा दिल-ए-मुज़्तर था मैं था और थीं बे-ताबियाँ मेरी अबस नादानियों पर आप-अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं आप ने नादानियाँ मेरी ये मंज़िल ये हसीं मंज़िल जवानी नाम है जिस का यहाँ से और आगे बढ़ना ये उम्र-ए-रवाँ मेरी
आरजू है वफ़ा करे कोई जी न चाहे तो क्या करे कोई गर मर्ज़ हो दवा करे कोई मरने वाले का क्या करे कोई कोसते हैं जले हुए क्या क्या अपने हक़ में दुआ करे कोई उन से सब अपनी अपनी कहते हैं मेरा मतलब अदा करे कोई तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर तुम से फिर बात क्या करे कोई जिस में लाखों बरस की हूरें हों ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
इस अदा से वो वफ़ा करते हैं कोई जाने कि वफ़ा करते हैं हमको छोड़ोगे तो पछताओगे हँसने वालों से हँसा करते हैं ये बताता नहीं कोई मुझको दिल जो आ जाए तो क्या करते हैं हुस्न का हक़ नहीं रहता बाक़ी हर अदा में वो अदा करते हैं किस क़दर हैं तेरी आँखे बेबाक इन से फ़ित्ने भी हया करते हैं इस लिए दिल को लगा रक्खा है इस में दिल को लगा रक्खा है 'दाग़' तू देख तो क्या होता है जब्र पर जब्र किया करते हैं
दर्द बन के दिल में आना , कोई तुम से सीख जाए जान-ए-आशिक़ हो के जाना , कोई तुम से सीख जाए हमसुख़न पर रूठ जाना , कोई तुम से सीख जाए रूठ कर फिर मुस्कुराना, कोई तुम से सीख जाए वस्ल की शब[1] चश्म-ए-ख़्वाब-आलूदा[2] के मलते उठे सोते फ़ित्ने[3] को जगाना,कोई तुम से सीख जाए कोई सीखे ख़ाकसारी की रविश[4] तो हम सिखाएँ ख़ाक में दिल को मिलाना,कोई तुम से सीख जाए आते-जाते यूँ तो देखे हैं हज़ारों ख़ुश-ख़राम[5] दिल में आकर दिल से जाना,कोई तुम से सीख...
ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई ये न पूछो कि ग़मे-हिज्र में कैसी गुज़री दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई तर्के-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे करके एहसान ,न एहसान जताए कोई क्यों वो मय-दाख़िले-दावत ही नहीं ऐ वाइज़ मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई सर्द -मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई आपने दाग़ को मुँह...
ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा आरज़ू ही न रही सुबहे-वतन[1] की मुझको शामे-गुरबत[2] है अजब वक़्त सुहाना तेरा ये समझकर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा ऐ दिले शेफ़्ता में आग लगाने वाले रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा तू...
ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया कि दिल से शोर उठा, हाए! बेक़रार किया तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार...
शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा
न रवा कहिये न सज़ा कहिये कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिये आ गई आप को मसिहाई मरने वालो को मर्हबा कहिये होश उड़ने लगे रक़ीबों के "दाग" को और बेवफ़ा कहिये
एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया धीरे— धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में इनको क्या मालूम कि...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...