रुपसि तेरा घन-केश पाश!

रुपसि तेरा घन-केश पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश ...!

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रुपसि तेरा घन-केश पाश!

श्यामल श्यामल कोमल कोमल,

लहराता सुरभित केश-पाश!

 

नभगंगा की रजत धार में,

धो आई क्या इन्हें रात?

कम्पित हैं तेरे सजल अंग,

सिहरा सा तन हे सद्यस्नात!

भीगी अलकों के छोरों से

चूती बूँदे कर विविध लास!

रुपसि तेरा घन-केश पाश!

 

सौरभ भीना झीना गीला

लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल;

चल अञ्चल से झर झर झरते

पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल;

दीपक से देता बार बार

तेरा उज्जवल चितवन-विलास!

रुपसि तेरा घन-केश पाश!

 

उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है

बक-पाँतों का अरविन्द-हार;

तेरी निश्वासें छू भू को

बन बन जाती मलयज बयार;

केकी-रव की नूपुर-ध्वनि सुन

जगती जगती की मूक प्यास!

रुपसि तेरा घन-केश पाश!

 

इन स्निग्ध लटों से छा दे तन,

पुलकित अंगों से भर विशाल;

झुक सस्मित शीतल चुम्बन से

अंकित कर इसका मृदुल भाल;

दुलरा देना बहला देना,

यह तेरा शिशु जग है उदास!

रुपसि तेरा घन-केश पाश!

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