घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन। खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ। दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि- चूर्ण हो विच्छुरित विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही बहु रंग-भाव भर शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, किरण-सम्पात से। दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों विचरते मञ्जु-मुख गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे। प्रस्रवण झरते...
तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी तुम छवि की परिणीता-सी, अपनी बेसुध मादकता में भूली-सी, भयभीता सी । तुम उल्लास भरी आई हो तुम आईं उच्छ्वास भरी, तुम क्या जानो मेरे उर में कितने युग की प्यास भरी । शत-शत मधु के शत-शत सपनों की पुलकित परछाईं-सी, मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की अनुरंजित अरुणाई-सी ; तुम अभिमान-भरी आई हो अपना नव-अनुराग लिए, तुम क्या जानो कि मैं तप रहा किस आशा की आग लिए । भरे हुए सूनेपन के...
रुपसि तेरा घन-केश पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश! नभगंगा की रजत धार में, धो आई क्या इन्हें रात? कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरा सा तन हे सद्यस्नात! भीगी अलकों के छोरों से चूती बूँदे कर विविध लास! रुपसि तेरा घन-केश पाश! सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल; चल अञ्चल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल; दीपक से देता बार बार तेरा उज्जवल चितवन-विलास! रुपसि तेरा...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...