उतरी शाम

" भटको बेबात कहीं लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !" धीरे धीरे उतरी शाम ...

Dharmavir bharti 600x350.jpg

धर्मवीर भारती

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई

खोतों पर अँधियारी छाई

पश्चिम की सुनहरी धुंधराई

टीलों पर, तालों पर

इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर

धीरे-धीरे उतरी शाम !

 

आँचल से छू तुलसी की थाली

दीदी ने घर की ढिबरी बाली

जमुहाई ले लेकर उजियाली

जा बैठी ताखों में

धीरे-धीरे उतरी शाम !

 

इस अधकच्चे से

घर के आंगन

में जाने क्यों इतना आश्वासन

पाता है यह मेरा टूटा मन

लगता है इन पिछले वर्षों में

सच्चे झूठे संघर्षों में

इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने

जो अब छुककर मेरे सिराहने

कहती है

" भटको बेबात कहीं

लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !"

धीरे धीरे उतरी शाम !

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