आलेख

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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा। उन्ही बीजों को नये पर लगे, उन्ही पौधों से नया रस झिरा। उन्ही खेतों पर गये हल चले, उन्ही माथों पर गये बल पड़े, उन्ही पेड़ों पर नये फल फले, जवानी फिरी जो पानी फिरा। पुरवा हवा की नमी बढ़ी, जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी, सविता ने क्या कविता पढ़ी, बदला है बादलों से सिरा। जग के अपावन धुल गये, ढेले गड़ने वाले थे घुल गये, समता के दृग दोनों तुल गये, तपता गगन घन से घिरा ।

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परंपरा

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है   पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है   परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी है, तो सूखी डालों को जलने दो   मगर जो डालें आज भी हरी हैं उन पर तो तरस खाओ मेरी एक बात तुम मान लो   लोगों...

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सर्जना के क्षण

एक क्षण भर और  रहने दो मुझे अभिभूत  फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं  ज्योति शिखायें  वहीं तुम भी चली जाना  शांत तेजोरूप!    एक क्षण भर और  लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!  बूँद स्वाती की भले हो  बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से  वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को  भले ही फिर व्यथा के तम में  बरस पर बरस बीतें  एक मुक्तारूप को पकते!

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