कविताएँ

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रुपसि तेरा घन-केश पाश!

रुपसि तेरा घन-केश पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश!   नभगंगा की रजत धार में, धो आई क्या इन्हें रात? कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरा सा तन हे सद्यस्नात! भीगी अलकों के छोरों से चूती बूँदे कर विविध लास! रुपसि तेरा घन-केश पाश!   सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल; चल अञ्चल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल; दीपक से देता बार बार तेरा उज्जवल चितवन-विलास! रुपसि तेरा...

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सखि, वे मुझसे कहकर जाते

सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?   मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते।   स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में - क्षात्र-धर्म के नाते  सखि, वे मुझसे कहकर जाते।   हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा, किसपर विफल गर्व अब जागा? जिसने अपनाया था, त्यागा;...

Dushyant kumar 275x153.jpg

हो गई है पीर पर्वत

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए   आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए   हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए   सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए   मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

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खूबसूरत मोड़

  चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखो दिलनवाज़ी की न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों से न ज़ाहिर हो हमारी कशमकश का राज़ नज़रों से   तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की तुम्हारे साथ में गुजारी हुई रातों के साये हैं   तआरुफ़ रोग बन जाए तो उसको भूलना बेहतर...

Saahir ludhianavi 275x153.jpg

मायूस तो हूं वायदे से तेरे

मायूस तो हूं वायदे से तेरे, कुछ आस नहीं कुछ आस भी है. मैं अपने ख्यालों के सदके, तू पास नहीं और पास भी है.    दिल ने तो खुशी माँगी थी मगर, जो तूने दिया अच्छा ही दिया. जिस गम को तअल्लुक हो तुझसे, वह रास नहीं और रास भी है.   पलकों पे लरजते अश्कों में तसवीर झलकती है तेरी.  दीदार की प्यासी आँखों को, अब प्यास नहीं और प्यास भी है.

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मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे

मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे  आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ  आज दुकान पे नीलाम उठेगा उन का  तूने जिन गीतों पे रक्खी थी मुहब्बत की असास  आज चाँदी की तराज़ू में तुलेगी हर चीज़  मेरे अफ़कार मेरी शायरी मेरा एहसास    जो तेरी ज़ात से मनसूब थे उन गीतों को  मुफ़्लिसी जिन्स बनाने पे उतर आई है  भूक तेरे रुख़-ए-रन्गीं के फ़सानों के इवज़  चंद आशिया-ए-ज़रूरत की तमन्नाई है    देख इस अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया...

Saahir ludhianavi 275x153.jpg

ताजमहल

ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त[1]ही सही  तुझको इस वादी-ए-रंगीं[2]से अक़ीदत[3] ही सही   मेरी महबूब[4] कहीं और मिला कर मुझ से!    बज़्म-ए-शाही[5] में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी  सब्त[6] जिस राह में हों सतवत-ए-शाही[7] के निशाँ  उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी    मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा[8]    तू ने सतवत[9] के निशानों को तो देखा होता  मुर्दा शाहों के मक़ाबिर[10] से बहलने वाली  अपने तारीक[11]...

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झांसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,  बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।    चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।    कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,  लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,  नाना के सँग पढ़ती थी...

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जिसे तू कुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ

  जिसे तू कुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ तेरे दिल को जो लुभाए वह सदा कहाँ से लाऊँ   मैं वो फूल हूँ कि जिसको गया हर कोई मसल के मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढल के जो बहार बन के बरसे वह घटा कहाँ से लाऊँ   तुझे और की तमन्ना, मुझे तेरी आरजू है तेरे दिल में ग़म ही ग़म है मेरे दिल में तू ही तू है जो दिलों को चैन दे दे वह दवा कहाँ से लाऊँ   मेरी बेबसी है ज़ाहिर मेरी आहे बेअसर से कभी मौत भी जो मांगी तो न पाई उसके...

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एक समान

डाल के रंग-बिरंगे फूल   राह के दुबले-पतले शूल   मुझे लगते सब एक समान!     न मैंने दुख से माँगी दया   न सुख ही मुझसे नाखुश गया   पुरानी दुनिया के भी बीच-   रहा मैं सदा नया का नया     धरा के ऊँचे-नीचे बोल   व्योम के चाँद-सूर्य अनमोल   मुझे लगते सब एक समान!     गगन के सजे-बजे बादल   नयन में सोया गंगाजल   चाँद से क्या कम प्यारा है   चाँद के माथे का काजल     ...

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केशर की, कलि की पिचकारी

केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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