बादल

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उत्साह

बादल, गरजो!-- घेर घेर घोर गगन, धाराधर जो! ललित ललित, काले घुँघराले, बाल कल्पना के-से पाले, विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले! वज्र छिपा, नूतन कविता फिर भर दो:-- बादल, गरजो! विकल विकल, उन्मन थे उन्मन, विश्व के निदाघ के सकल जन, आये अज्ञात दिशा से अनन्त के घन! तप्त धरा, जल से फिर शीतल कर दो:-- बादल, गरजो!

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बादल आए झूम के

बादल आए झूम के। आसमान में घूम के। बिजली चमकी चम्म-चम। पानी बरसा झम्म-झम।। हवा चली है जोर से। नाचे जन-मन मोर-से। फिसला पाँव अरर-धम। चारों खाने चित्त हम।। मेघ गरजते घर्र-घों। मेढक गाते टर्र-टों। माँझी है उस पार रे। नाव पड़ी मँझधार रे।। शाला में अवकाश है। सुंदर सावन मास है। हाट-बाट सब बंद है। अच्छा जी आनंद है।। पंछी भीगे पंख ले। ढूँढ़ रहे हैं घोंसले। नद-नाले नाद पुकारते।। हिरन चले मैदान से। गीदड़ निकले माँद से। गया सिपाही फौज में।...

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साँझ के बादल

ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।   नीलम पर किरनों  की साँझी  एक न डोरी  एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती  सेंदुर और प्रवाल!   कुछ समीप की  कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की  कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम  कुछ में केवल जाल।   ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।

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मधुर! बादल, और बादल, और बादल

मधुर ! बादल, और बादल, और बादल आ रहे हैं और संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।   गरज में पुस्र्षार्थ उठता, बरस में कस्र्णा उतरती उग उठी हरीतिमा क्षण-क्षण नया श्रृङ्गर करती बूँद-बूँद मचल उठी हैं, कृषक-बाल लुभा रहे हैं।। नेह! संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।   तड़ित की तह में समायी मूर्ति दृग झपका उठी है तार-तार कि धार तेरी, बोल जी के गा उठी हैं पंथियों से, पंछियों से नीड़ के स्र्ख जा रहे हैं मधुर! बादल, और...

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मैं नीर भरी दु:ख की बदली

[विस्तृत नभ का कोई कोना,मेरा न कभी अपना होना,परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली ...]   मैं नीर भरी दु:ख की बदली!   स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रन्दन में आहत विश्व हंसा, नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली!   मेरा पग-पग संगीत भरा, श्वासों में स्वप्न पराग झरा, नभ के नव रंग बुनते दुकूल, छाया में मलय बयार पली,   मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल, चिंता का भार बनी अविरल, रज-कण पर जल-कण...

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पक्षी और बादल

ये भगवान के डाकिये हैं, जो एक महादेश से दूसरे महादेश को जाते हैं।   हम तो समझ नहीं पाते हैं, मगर उनकी लायी चिट्ठियाँ पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं।   हम तो केवल यह आँकते हैं कि एक देश की धरती  दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है।   और वह सौरभ हवा में तैरती हुए पक्षियों की पाँखों पर तिरता है। और एक देश का भाप दूसरे देश का पानी बनकर गिरता है।

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