मौन

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चुपचाप

चुप-चाप चुप-चाप झरने का स्वर             हम में भर जाए,   चुप-चाप चुप-चाप शरद की चाँदनी             झील की लहरों पे तिर आए,   चुप-चाप चुप-चाप जीवन का रहस्य, जो कहा न जाए, हमारी             ठहरी आँखों में गहराए,   चुप-चाप चुप-चाप हम पुलकित विराट् में डूबे—             पर विराट् हम में मिल जाए—   चुप-चाप चुप-चाऽऽप…

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मौन और शब्द

एक दिन मैंने मौन में शब्द को धँसाया था और एक गहरी पीड़ा, एक गहरे आनंद में, सन्निपात-ग्रस्त सा, विवश कुछ बोला था; सुना, मेरा वह बोलना दुनियाँ में काव्य कहलाया था।   आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ, अब न पीड़ा है न आनंद है विस्मरण के सिन्धु में डूबता सा जाता हूँ, देखूँ, तह तक पहुँचने तक, यदि पहुँचता भी हूँ,  क्या पाता हूँ।

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