रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत[1]का भरम रख तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ पहले से मरासिम[2] न सही, फिर भी कभी तो रस्मों-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया[3] से भी महरूम ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें...
गले से गीत टूट गए चर्खे का धागा टूट गया और सखियां-जो अभी अभी यहां थीं जाने कहां कहां गईं... हीर के मांझी ने-वह नौका डुबो दी जो दरिया में बहती थी हर पीपल से टहनियां टूट गईं जहां झूलों की आवाज़ आती थी... वह बांसुरी जाने कहां गई जो मुहब्बत का गीत गाती थी और रांझे के भाई बंधु बांसुरी बजाना भूल गए... ज़मीन पर लहू बहने लगा- इतना-कि कब्रें चूने लगीं और मुहब्बत की शहज़ादियां मज़ारों में रोने लगीं......
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...