ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है दुनिया उन्हीं फूलों को पैरों से मसलती है शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख दे यूँ याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है आ जाता है ख़ुद खींच कर दिल सीने से पटरी पर जब रात की सरहद से इक रेल गुज़रती है आँसू कभी पलकों पर ता देर नहीं रुकते उड़ जाते हैं ये पंछी जब शाख़ लचकती है ख़ुश रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये बिछड़े हुए मिलते...
दुआ करो कि ये पौधा सदा हरा ही लगे उदासियों से भी चेहरा खिला-खिला ही लगे ये चाँद तारों का आँचल उसी का हिस्सा है कोई जो दूसरा ओढे तो दूसरा ही लगे नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही ये खिड़की खोलो ज़रा सुबह की हवा ही लगे अजीब शख़्स है नाराज़ होके हंसता है मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो ख़फ़ा ही लगे
चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखो दिलनवाज़ी की न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों से न ज़ाहिर हो हमारी कशमकश का राज़ नज़रों से तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की तुम्हारे साथ में गुजारी हुई रातों के साये हैं तआरुफ़ रोग बन जाए तो उसको भूलना बेहतर...
मायूस तो हूं वायदे से तेरे, कुछ आस नहीं कुछ आस भी है. मैं अपने ख्यालों के सदके, तू पास नहीं और पास भी है. दिल ने तो खुशी माँगी थी मगर, जो तूने दिया अच्छा ही दिया. जिस गम को तअल्लुक हो तुझसे, वह रास नहीं और रास भी है. पलकों पे लरजते अश्कों में तसवीर झलकती है तेरी. दीदार की प्यासी आँखों को, अब प्यास नहीं और प्यास भी है.
मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ आज दुकान पे नीलाम उठेगा उन का तूने जिन गीतों पे रक्खी थी मुहब्बत की असास आज चाँदी की तराज़ू में तुलेगी हर चीज़ मेरे अफ़कार मेरी शायरी मेरा एहसास जो तेरी ज़ात से मनसूब थे उन गीतों को मुफ़्लिसी जिन्स बनाने पे उतर आई है भूक तेरे रुख़-ए-रन्गीं के फ़सानों के इवज़ चंद आशिया-ए-ज़रूरत की तमन्नाई है देख इस अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया...
ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त[1]ही सही तुझको इस वादी-ए-रंगीं[2]से अक़ीदत[3] ही सही मेरी महबूब[4] कहीं और मिला कर मुझ से! बज़्म-ए-शाही[5] में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी सब्त[6] जिस राह में हों सतवत-ए-शाही[7] के निशाँ उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा[8] तू ने सतवत[9] के निशानों को तो देखा होता मुर्दा शाहों के मक़ाबिर[10] से बहलने वाली अपने तारीक[11]...
मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने क्या ख्याल आया उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी मेरे हाथों में थमाई और हंस कर कुछ दूर हो गया हैरान थी…. पर उसका चमत्कार ले लिया पता था कि इस प्रकार की घटना कभी सदियों में होती है….. लाखों ख्याल आये माथे में झिलमिलाये पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी? मेरे शहर की हर गली संकरी...
यह कैसी चुप है कि जिसमें पैरों की आहट शामिल है कोई चुपके से आया है -- चुप से टूटा हुआ -- चुप का टुकड़ा -- किरण से टूटा हुआ किरण का कोई टुकड़ा यह एक कोई "'वह'' है जो बहुत बार बुलाने पर भी नही आया था | और अब मैं अकेली नहीं मैं आप अपने संग खड़ी हूँ शीशे की सुराही में नज़रों की शराब भरी है -- और हम दोनों जाम पी रहे हैं वह टोस्ट दे रहा उन लफ्जों के जो सिर्फ़ छाती में उगते हैं | यह अर्थों का जश्न है --- ...
आज सूरज ने कुछ घबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली बादल की एक खिड़की बंद की और अंधेरे की सीढियां उतर गया…. आसमान की भवों पर जाने क्यों पसीना आ गया सितारों के बटन खोल कर उसने चांद का कुर्ता उतार दिया…. मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं तुम्हारी याद इस तरह आयी जैसे गीली लकड़ी में से गहरा और काला धूंआ उठता है…. साथ हजारों ख्याल आये जैसे कोई सूखी लकड़ी सुर्ख आग की आहें भरे, दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं वर्ष कोयले की...
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की उजालों की परियाँ नहाने लगीं नदी गुनगुनाई ख़यालात की मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की सितारों को शायद ख़बर ही नहीं मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का बरसती हुई रात बरसात की
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...