प्रकृति

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साँझ के बादल

ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।   नीलम पर किरनों  की साँझी  एक न डोरी  एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती  सेंदुर और प्रवाल!   कुछ समीप की  कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की  कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम  कुछ में केवल जाल।   ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।

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ये प्रकाश ने फैलाये हैं

ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में अन्धकार का अमित कोष भर आया फैली व्याली में   ख़ाली में उनका निवास है, हँसते हैं, मुसकाता हूँ मैं ख़ाली में कितने खुलते हो, आँखें भर-भर लाता हूँ मैं इतने निकट दीख पड़ते हो वन्दन के, बह जाता हूँ मैं संध्या को समझाता हूँ मैं, ऊषा में अकुलाता हूँ मैं चमकीले अंगूर भर दिये दूर गगन की थाली में ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में।।   पत्र-पत्र पर, पुष्प-पुष्प पर कैसे राज...

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मधुर! बादल, और बादल, और बादल

मधुर ! बादल, और बादल, और बादल आ रहे हैं और संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।   गरज में पुस्र्षार्थ उठता, बरस में कस्र्णा उतरती उग उठी हरीतिमा क्षण-क्षण नया श्रृङ्गर करती बूँद-बूँद मचल उठी हैं, कृषक-बाल लुभा रहे हैं।। नेह! संदेशा तुम्हारा बह उठा है, ला रहे हैं।।   तड़ित की तह में समायी मूर्ति दृग झपका उठी है तार-तार कि धार तेरी, बोल जी के गा उठी हैं पंथियों से, पंछियों से नीड़ के स्र्ख जा रहे हैं मधुर! बादल, और...

Jaishankar prasad 275x153.jpg

दो बूँदें

शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास पुलक कर लगी देखने धरा प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद सु शीतलकारी शशि आया सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !

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बीती विभावरी जाग री

बीती विभावरी जाग री!   अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी!   खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा लो यह लतिका भी भर ला‌ई- मधु मुकुल नवल रस गागरी   अधरों में राग अमंद पिए अलकों में मलयज बंद किए तू अब तक सो‌ई है आली आँखों में भरे विहाग री!

Harivanshrai 275x153.jpg

लो दिन बीता लो रात गयी

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई   धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फ़ैले, सौ रजनी सी वह रजनी थी, क्यों संध्या को यह सोचा था, निशि में होगी कुछ बात नई, लो दिन बीता, लो रात गई   चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी, पूरब से फ़िर सूरज निकला, जैसे होती थी, सुबह हुई, क्यों सोते-सोते सोचा था, ...

Ramanath awasthi 275x153.jpg

एक समान

डाल के रंग-बिरंगे फूल   राह के दुबले-पतले शूल   मुझे लगते सब एक समान!     न मैंने दुख से माँगी दया   न सुख ही मुझसे नाखुश गया   पुरानी दुनिया के भी बीच-   रहा मैं सदा नया का नया     धरा के ऊँचे-नीचे बोल   व्योम के चाँद-सूर्य अनमोल   मुझे लगते सब एक समान!     गगन के सजे-बजे बादल   नयन में सोया गंगाजल   चाँद से क्या कम प्यारा है   चाँद के माथे का काजल     ...

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