भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो। यह पत्थर का हृदय आँसुओं से धोने दो। रहो प्रेम से तुम्हीं मौज से मजुं महल में, मुझे दुखों की इसी झोपड़ी में सोने दो। कुछ भी मेरा हृदय न तुमसे कह पावेगा किन्तु फटेगा, फटे बिना क्या रह पावेगा, सिसक-सिसक सानंद आज होगी श्री-पूजा, बहे कुटिल यह सौख्य, दु:ख क्यों बह पावेगा? वारूँ सौ-सौ श्वास एक प्यारी उसांस पर, हारूँ अपने प्राण, दैव, तेरे विलास पर चलो, सखे, तुम चलो, तुम्हारा कार्य चलाओ, लगे दुखों...
[विस्तृत नभ का कोई कोना,मेरा न कभी अपना होना,परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली ...] मैं नीर भरी दु:ख की बदली! स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रन्दन में आहत विश्व हंसा, नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा, श्वासों में स्वप्न पराग झरा, नभ के नव रंग बुनते दुकूल, छाया में मलय बयार पली, मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल, चिंता का भार बनी अविरल, रज-कण पर जल-कण...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...