न रवा कहिये न सज़ा कहिये कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिये आ गई आप को मसिहाई मरने वालो को मर्हबा कहिये होश उड़ने लगे रक़ीबों के "दाग" को और बेवफ़ा कहिये
ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा[1] क्यूँ नहीं देते बिस्मिल[2] हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते वहशत[3] का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ[4] तो नहीं है मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम[5] को बुझा क्यूँ नहीं देते इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ[6] है ऐ चारागरो![7] दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते मुंसिफ़[8] हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे मुजरिम[9] हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते रहज़न[10] हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ[11]...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...