जागो फिर एक बार !
समर में अमर कर प्राण,
गान गाये महासिन्धु-से
सिन्धु-नद-तीरवासी !
सैन्धव तुरंगों पर
चतुरंग चमू संग;
‘‘सवा-सवा लाख पर
एक को चढ़ाऊँगा,
गोविन्द सिंह निज
नाम जब कहाऊँगा।''
किसने सुनाया यह
वीर-जन-मोहन अति
दुर्जय संग्राम-राग,
फाग का खेला रण
बारहों महीनों में ?
शेरों की माँद में,
आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार !
सत् श्री अकाल,
भाल-अनल धक-धक कर जला,
भस्म हो गया था काल-
तीनों गुण-ताप त्रय,
अभय हो गये थे तुम,
मृत्युञ्जय व्योमकेश के समान,
अमृत-सन्तान ! तीव्र
भेदकर सप्तावरण-मरण-लोक,
शोकहारी ! पहुँचे थे वहाँ,
जहाँ आसन है सहस्रार-
सिंह की गोद से
छीनता रे शिशु कौन ?
मौन भी क्या रहती वह
रहते प्राण ? रे अजान !
एक मेषमाता ही
रहती है निर्निमेष-
दुर्बल वह-
छिनती सन्तान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है;-
किन्तु क्या,
योग्य जन जीता है,
पश्चिम की उक्ति नहीं-
गीता है, गीता है-
स्मरण करो बार-बार-
जागो फिर एक बार !
पशु नहीं वीर तुम,
समर-शूर क्रूर नहीं,
कालचक्र में हो दबे
आज तुम राजकुँवर !-समर-सरताज !
पर, क्या है,
सब माया है-माया है,
मुक्त हो सदा ही तुम,
बाधा-विहीन बन्ध छन्द ज्यों,
डूबे आनन्द में सच्चिदानन्द-रूप।
महामन्त्र ऋषियों का
अणुओं-परमाणुओं में फूँका हुआ-
‘‘तुम हो महान्, तुम सदा हो महान्,
है नश्वर यह दीन भाव,
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम,
पद-रज-भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्व-भार''-
जागो फिर एक बार !
(1921 ई.)
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