दीप मेरे जल अकम्पित

दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल! सिन्धु का उच्छवास घन है, तड़ित, तम का विकल मन है ...

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दीप मेरे जल अकम्पित,

घुल अचंचल!

सिन्धु का उच्छवास घन है,

तड़ित, तम का विकल मन है,

भीति क्या नभ है व्यथा का

आँसुओं से सिक्त अंचल! 

स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें,

मीड़, सब भू की शिरायें,

गा रहे आंधी-प्रलय

तेरे लिये ही आज मंगल

 

मोह क्या निशि के वरों का,

शलभ के झुलसे परों का

साथ अक्षय ज्वाल का

तू ले चला अनमोल सम्बल!

 

पथ न भूले, एक पग भी,

घर न खोये, लघु विहग भी,

स्निग्ध लौ की तूलिका से 

आँक सबकी छाँह उज्ज्वल

 

हो लिये सब साथ अपने,

मृदुल आहटहीन सपने,

तू इन्हें पाथेय बिन, चिर

प्यास के मरु में न खो, चल!

 

धूम में अब बोलना क्या,

क्षार में अब तोलना क्या!

प्रात हंस रोकर गिनेगा,

स्वर्ण कितने हो चुके पल!

दीप रे तू गल अकम्पित,

चल अंचल!

 

(संग्रह: दीपशिखा)

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