शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो जो ज़हर पी चुका...
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं सुना है रब्त है उसको...
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ...
ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा[1] क्यूँ नहीं देते बिस्मिल[2] हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते ...
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत[1]का...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...