जलने दो जीवन को इस पर करुणा की छाया न करो! इन असंख्य-घावों पर नाहक अमृत बरसाया न करो! फिर-फिर उस स्वप्निल-अतीत की गाथाएं गाया न करो! बार-बार वेदना-भरी स्मृतियों को उकसाया न करो! जीवन के चिर-अंधकार में दीपक तुम न जलाओ! मेरे उर के घोर प्रलय को सोने दो, न जगाओ! इच्छाओं की दग्ध-चिता पर क्यों हो जल बरसाते? सोई हुई व्यथा को छूकर क्यों हो व्यर्थ जगाते? संवेदना प्रकट करते हो चाह नहीं, रहने दो! ठुकराए को हाथ बढ़ाकर क्यों हो अब अपनाते?...
वक़्त ने बदली है सिर्फ़ तन की पोशाक मन की ख़बरें तो आज भी छप रही हैं पुरानी मशीन पर आज भी मंदिरों में ही जा रहे हैं फूल आज भी उंगलियों को बींध रहे हैं शूल आज भी सड़कों पर जूते चटका रहा है भविष्य आज भी खिड़कियों से दूर है रोशनी आज भी पराजित है सत्य आज भी प्यासी है उत्कंठा आज भी दीवारों को दहला रही है छत आज भी सीटियाँ मार रही है हवा आज भी ज़िन्दगी पर नहीं है भरोसा।
वह आता-- दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-- दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये, बायें से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये। भूख से सूख ओठ जब जाते दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?-- घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते। चाट...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...