नदी को रास्ता किसने दिखाया? सिखाया था उसे किसने कि अपनी भावना के वेग को उन्मुक्त बहने दे? कि वह अपने लिए खुद खोज लेगी सिन्धु की गम्भीरता स्वच्छन्द बहकर? इसे हम पूछते आए युगों से, और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का। मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने, बनाया मार्ग मैने आप ही अपना। ढकेला था शिलाओं को, गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से, वनों में, कंदराओं में, भटकती, भूलती मैं फूलती उत्साह...
यह लघु सरिता का बहता जल कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸ हिमगिरि के हिम से निकल-निकल¸ यह विमल दूध-सा हिम का जल¸ कर-कर निनाद कल-कल¸ छल-छल बहता आता नीचे पल पल तन का चंचल मन का विह्वल। यह लघु सरिता का बहता जल।। निर्मल जल की यह तेज़ धार करके कितनी श्रृंखला पार बहती रहती है लगातार गिरती उठती है बार बार रखता है तन में उतना बल यह लघु सरिता का बहता जल।। एकांत प्रांत निर्जन निर्जन यह वसुधा के हिमगिरि का वन रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण...
ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पाल उड़ाती आती मंथर चाल। नीलम पर किरनों की साँझी एक न डोरी एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती सेंदुर और प्रवाल! कुछ समीप की कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम कुछ में केवल जाल। ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पाल उड़ाती आती मंथर चाल।
एक बार नदी बोली ! मैँ यूँ ही अविरल बहती जाऊँ । अपने तट पर गाँव शहर बसाऊँ । बिना किये तुमसे कोई आशा । मैँ तृप्त करूँ सबकी अभिलाषा । मेरे जल से तुम फसल उगाओ । लहराती फसल देख मुस्कुराओ । भर जाये अन्न से तुम्हारी झोली ! एक बार नदी बोली ! पर्वत शिखरोँ पर जन्म हुआ मेरा । चाँदी सा उज्जवल था तन मेरा । इठलाती बलखाती मैँ गाती थी । अपने यौवन पर मैँ इतराती थी । अपने जल मेँ मुखड़ा निहार लेती थी । सबको मैँ...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...