है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए दिल जवां, सपने जवाँ, मौसम जवाँ, शब् भी जवाँ तुझको मुझसे...
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी है, तो सूखी डालों को जलने दो मगर जो डालें आज भी हरी हैं उन पर तो तरस खाओ मेरी एक बात तुम मान लो लोगों...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...