हमसर हयात

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बहोत रही बाबुल घर दुल्हन

  बहोत रही बाबुल घर दुल्हन, चल तोरे पी ने बुलाई। बहोत खेल खेली सखियन से, अन्त करी लरिकाई। बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई। चार कहार मिल डोलिया उठाई, संग परोहत और भाई। चले ही बनेगी होत कहाँ है, नैनन नीर बहाई। अन्त बिदा हो चलि है दुल्हिन, काहू कि कछु न बने आई। मौज-खुसी सब देखत रह गए, मात पिता और भाई। मोरी कौन संग लगन धराई, धन-धन तेरि है खुदाई। बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्ही, नेह की मिसरी खिलाई। एक के नाम कर दीनी सजनी, पर घर की...

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केशर की, कलि की पिचकारी

केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...

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कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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