रात

अब निशा देती निमंत्रण

अब निशा देती निमंत्रण! महल इसका तम-विनिर्मित, ज्वलित इसमें दीप अगणित! द्वार निद्रा के सजे हैं स्वप्न से शोभन-अशोभन! अब निशा देती निमंत्रण! भूत-भावी इस जगह पर वर्तमान समाज होकर सामने है देश-काल-समाज के तज सब नियंत्रण! अब निशा देती निमंत्रण! सत्य कर सपने असंभव!-- पर, ठहर, नादान मानव!-- हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन! अब निशा देती निमंत्रण!

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