मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक, तेरे चरण चूमता सागर, श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ वाणी में है गीता का स्वर। ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम। मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम। हरे-भरे हैं खेत सुहाने, फल-फूलों से युत वन-उपवन, तेरे अंदर भरा हुआ है ...
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो! एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए मातृ भूमि...
हमारा देश भारत है नदी गोदावरी गंगा. लिखा भूगोल पर युग ने हमारा चित्र बहुरंगा. हमारी देश की माटी अनोखी मूर्ति वह गढ़ती. धरा क्या स्वर्ग से भी जो गगन सोपान पर चढ़ती. हमारे देश का पानी हमें वह शक्ति है देता. भरत सा एक बालक भी पकड़ वनराज को लेता. जहां हर सांस में फूले सुमन मन में महकते हैं. जहां ऋतुराज के पंछी मधुर स्वर में चहकते हैं. हमारी देश की धरती बनी है अन्नपूर्णा सी. हमें अभिमान है इसका कि हम इस देश...
तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ, तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ, आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ, तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ, यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला, ...तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला । बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी, मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी, मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी, भाई की गति, मति भगिनी...
आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त वीरों का हो कैसा वसन्त फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग अंग; है वीर देश में किन्तु कंत वीरों का हो कैसा वसन्त भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत वीरों का हो कैसा वसन्त गलबाहें हों या कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण...
क्या कहा कि यह घर मेरा है? जिसके रवि उगें जेलों में, संध्या होवे वीरानों मे, उसके कानों में क्यों कहने आते हो? यह घर मेरा है? है नील चंदोवा तना कि झूमर झालर उसमें चमक रहे, क्यों घर की याद दिलाते हो, तब सारा रैन-बसेरा है? जब चाँद मुझे नहलाता है, सूरज रोशनी पिन्हाता है, क्यों दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा है, यह मेरा है? ये आए बादल घूम उठे, ये हवा के झोंके झूम उठे, बिजली...
अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।। सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।। लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे। उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।। बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल। लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।। हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे। मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।...
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी...
मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...