भीड़ों में
जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं
वह सहसा दिख जाता है
मानव
अंगारे-सा--भगवान-सा
अकेला।
और हमारे सारे लोकाचार
राख की युगों-युगों की परतें हैं।
अंगारे-सा--भगवान-सा अकेला। और हमारे सारे लोकाचार राख की युगों-युगों की परतें हैं...
भीड़ों में
जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं
वह सहसा दिख जाता है
मानव
अंगारे-सा--भगवान-सा
अकेला।
और हमारे सारे लोकाचार
राख की युगों-युगों की परतें हैं।
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...
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