ध्वनि

मेरे ही अविकसित राग से विकसित होगा बन्धु, दिगन्त ...

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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

अभी न होगा मेरा अन्त 

 

अभी-अभी ही तो आया है 

मेरे वन में मृदुल वसन्त- 

अभी न होगा मेरा अन्त 

 

हरे-हरे ये पात, 

डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! 

 

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर 

फेरूँगा निद्रित कलियों पर 

जगा एक प्रत्यूष मनोहर 

 

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं, 

अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं, 

 

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको 

है मेरे वे जहाँ अनन्त- 

अभी न होगा मेरा अन्त। 

 

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण, 

इसमें कहाँ मृत्यु? 

है जीवन ही जीवन 

अभी पड़ा है आगे सारा यौवन 

स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन, 

 

मेरे ही अविकसित राग से 

विकसित होगा बन्धु, दिगन्त; 

अभी न होगा मेरा अन्त।

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